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PM मोदी ने कहा-संघवाद में सहकारिता के साथ-साथ प्रतिस्पर्धा लाई जाए तभी मिलेगी विकास को गति..

किसी संघवाद में जब प्रतिस्पर्धा शामिल हो जाती है तो सहकारिता समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में यह गंभीर प्रश्न हमारे सामने है कि ऐसी कौन सी रणनीति अपनाई जाए जिससे संघवाद के दोनों ही रूप साथ-साथ चल सकें और विकास को दिशा दे सकें। इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि सहकारी और प्रतिस्पर्धी संघवाद क्या होते हैं? ध्यातव्य हो कि उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ 1977 मामले में जाने-माने संविधानविद और विधिवेत्ता ग्रेनविल आस्टिन को संदर्भित किया जब उन्होंने कहा था कि भारत का संविधान कदाचित पहला ऐसा दस्तावेज है, जिसमें सहकारी संघवाद की संकल्पना शामिल है।
किसी भी परिसंघीय ढांचे में सहकारिता का अर्थ यह है कि संघ-राज्य तथा राज्य-राज्य सहयोग और समन्वय बना रहे, ताकि दोनों अपनी-अपनी शक्तियों के प्रयोग में एक-दूसरे की सहायता करें और खास कर, वित्तीय हस्तांतरण में कोई असंतुलन नहीं हो। जहां तक भारत के परिसंघ का सवाल है, यह दूसरे परिसंघों से कई मामलों में भिन्न है। सामान्यत: परिसंघों का निर्माण उनकी इकाइयों (राज्यों) के बीच आपसी समझौते से होता है, लेकिन भारत में ऐसा कोई समझौता नहीं है, बल्कि यह एक विकेंद्रीकृत परिसंघ है जिसमें राज्यों का गठन संघ द्वारा प्रशासनिक आवश्यकताओं को देखते हुए किया जाता है। भारत के शीर्ष न्यायालय ने बंगाल राज्य बनाम भारत संघ 1963 मामले में यह स्पष्ट किया कि भारत के परिसंघ में एकल संविधान का प्रविधान है और सबसे बड़ी बात यह है कि स्थानीय स्तर पर विकास की नीतियों के निर्धारण का दायित्व राज्यों का है, जबकि राष्ट्रीय हितों के संरक्षण के लिए संघ को उत्तरदायी बनाया गया है। ऐसी स्थिति में संघ-राज्य और राज्य-राज्य समन्वय अनिवार्य है, ताकि परस्पर सहयोग से संवैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति संभव हो सके। अब यदि प्रतिस्पर्धी संघवाद की बात करें तो इसकी परिभाषा एक अमेरिकी संस्था लिबर्टी फाउंडेशन ने दी है जिसके अनुसार, किसी परिसंघ में जब राज्य नागरिकों को न्यूनतम लागत पर उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं तो उसे प्रतिस्पर्धी संघवाद कहा जाता है। ऐसे संघवाद में शक्तियों का विकेंद्रीकरण और राज्यों की स्वायत्तता सबसे महत्वपूर्ण होती है। भारत के परिसंघीय ढांचे की विशेषता यह है कि इसका आत्मा भले एकात्मक है, लेकिन इसका चरित्र परिसंघीय है। इसी संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने बहुचर्चित एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 मामले में भारत के राजनीतिक ढांचे को व्यावहारिक परिसंघ (प्रैग्मेटिक फेडरेशन) कहा है। इसका अर्थ यह है कि संघ और राज्यों के बीच कानून बनाने, प्रशासन और वित्तीय संसाधनों के जुटाव के लिए संविधान की सातवीं अनुसूची में विषयों का बंटवारा किया गया है, लेकिन आपातकालीन परिस्थितियों में इसकी प्रकृति पूर्णत: एकात्मक हो जाती है।

एकात्मक परिसंघ

एकात्मक परिसंघ की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसमें वित्त और अवशिष्ट शक्तियां राज्यों के बदले संघ में निहित होती हैं। इसी कारण, भारत में भी यह उपबंध किया गया है कि धन विधेयक राज्यसभा में नहीं लाए जाएंगे और जिन विषयों का उल्लेख संविधान में नहीं है, उन पर कानून बनाने की शक्ति संसद को होगी। इस आधार पर यह स्पष्ट है कि भारत में संसाधनों (वित्तीय संसाधनों सहित) के आवंटन का मूल दायित्व संघ का है, और राज्यों को उनके समतामूलक वितरण (आवश्यकतानुसार) के लिए उत्तरदायी बनाया गया है। इसके बावजूद, बदलते परिप्रेक्ष्य में, खासकर जब स्थानीय स्तर पर जन आकांक्षाओं और सेवाओं की मांग के साथ-साथ प्रशासनिक जटिलताओं में वृद्धि हो गई है, तब परिसंघीय ढांचे में राज्यों की स्वायत्तता बढ़ने की भी आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। इस दिशा में कई प्रयास भी किए गए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण संविधान के 101वें संशोधन अधिनियम 2016 द्वारा अनुच्छेद 279-ए में जीएसटी परिषद का प्रविधान है जो अंतरराज्यीय जीएसटी से प्राप्त राजस्व के राज्यों में वितरण के लिए सिफारिश करता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसका निर्णय तीन-चौथाई बहुमत से होता है जिसमें दो-तिहाई राज्यों का और एक-तिहाई संघ का बहुमत निर्धारित है। राज्यों को स्वायत्तता का विषय : सहकारिता और सहयोग को बढ़ाने व राज्यों को और स्वायत्तता देने के उद्देश्य से पिछले कई वित्त आयोगों ने भी केंद्रीय राजस्व में राज्यों के अंश को बढ़ाया है और निश्चित रूप से इससे राज्यों को विकास के लिए आवश्यक धनराशि की उपलब्धता बढ़ी है। ध्यातव्य हो कि वर्ष 2022-23 में 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार, राज्यों को उनके सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के चार प्रतिशत के राजकोषीय घाटे की अनुमति दी जाएगी, जिसमें से 0.5 प्रतिशत बिजली क्षेत्र के सुधारों से जुड़े होंगे। इसके लिए शर्तो की घोषणा 2021-22 में पहले ही कर दी गई थी। वर्ष 2022-23 के लिए अर्थव्यवस्था में समग्र निवेश को उत्प्रेरित करने में राज्यों की सहायता के लिए एक लाख करोड़ रुपये की सहायता भी संघ द्वारा दिए जाने का निर्णय किया गया है जो 50 वर्षीय ब्याज मुक्त ऋण राज्यों को दी जाने वाली सामान्य उधारी से अधिक है। इस आवंटन का उपयोग प्रधानमंत्री गति शक्ति योजना से संबंधित और राज्यों के अन्य उत्पादक पूंजी निवेश के लिए किया जाएगा। अब देखना यह है कि राज्य कितनी कार्यकुशलता और पारदर्शिता के साथ इसका उपयोग करते हैं। यहीं उनके बीच प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता है, ताकि लोक वित्त का सदुपयोग होने के साथ ही देश की विकास दर बढ़ाने में उसका अधिक से अधिक योगदान भी हो। पिछले ढाई दशक में वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रियाओं ने बाजार अर्थव्यवस्था का जिस प्रकार प्रसार किया है और नई आवश्यकताएं उत्पन्न हुई हैं, उससे प्रतिस्पर्धा भी तेजी से बढ़ी है। भारत की अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर बढ़ाने के लिए राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा का होना अपरिहार्य हो गया है। विकास दर बढ़ने के साथ-साथ आय की विषमताएं भी बढ़ गई हैं जो देश के सामने एक बड़ी चुनौती बन गई है। ऐसी स्थिति में न केवल नीति निर्माण में राज्यों के बीच सहयोग की जरूरत हो गई है, बल्कि पूंजी निवेश और सेवा आपूर्ति में उनके बीच प्रतिस्पर्धा की भी जरूरत है। तभी तीव्र और समावेशी विकास के लक्ष्य की प्राप्ति संभव होगी। प्रतिस्पर्धी संघवाद : जहां तक प्रतिस्पर्धी संघवाद का प्रश्न है, नीति आयोग राज्यों/ संघ राज्य क्षेत्रों के बेहतर प्रदर्शन को सुगम बनाकर प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा देने का प्रयास करता है। यह विभिन्न क्षेत्रों में पारदर्शी रैंकिंग के माध्यम से राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करता है। नीति आयोग द्वारा शुरू किए गए कुछ सूचकांक स्कूल शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक, राज्य स्वास्थ्य सूचकांक, जल प्रबंधन सूचकांक, सतत विकास लक्ष्य सूचकांक आदि महत्वपूर्ण पहल हैं जो प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित कराने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। वर्तमान सरकार ने राष्ट्र के रूपांतरण के लिए सहकारी-प्रतिस्पर्धी संघवाद के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी उप-संघवाद के लिए जो पहलें की हैं, उनसे प्रेरित होकर राज्यों के स्तर पर जहां निवेश के लिए नीतियां उन्मुख हुई हैं, वहीं सेवा आपूर्ति के प्रति भी उनकी संवेदनशीलता बढ़ी है। परंतु इस दिशा में अभी लंबी दूरी तय करनी है और राज्यों को इसके प्रति अधिक प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है। आज के परिवेश में नीति निर्माण में सहकारिता और आर्थिक कार्यकुशलता के लिए प्रतिस्पर्धा तो होनी ही चाहिए। इसी कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रतिस्पर्धी संघवाद पर जोर दिया है जो कहीं से भी अव्यावहारिक नहीं है। इस दृष्टिकोण का प्रयोग करने में सबसे बड़ी भूमिका अंतर-राज्यीय परिषद और नीति आयोग की होगी। ध्यातव्य हो कि अंतर-राज्यीय परिषद एक संवैधानिक संस्था है जिसका उल्लेख अनुच्छेद 263 में किया गया है। सरकारिया आयोग की सिफारिशों और डाबर इंडिया लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1990 मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के आधार पर इस परिषद का गठन वर्ष 1990 में किया गया था। सरकार ने इसका पुनर्गठन कर इसे जीवंत बनाया है। इसके साथ ही, क्षेत्रीय परिषदों की कार्यकुशलता बढ़ाने पर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है। राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ाने में व्यापार और वाणिज्य क्षेत्र का भी विशेष योगदान है। ऐसी स्थिति में राज्यों द्वारा व्यापार बढ़ाने की दिशा में बेहतर प्रयास करने की आवश्यकता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि नीति आयोग राष्ट्र को तेजी से विकास के पथ पर लाने को अग्रसर है और ऐसे में राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धी सहयोग का होना अनिवार्य हो गया है। राजनीतिक दृष्टि से यह विकास एकात्मक परिसंघ में व्यावहारिक रूप से प्रतिस्पर्धा और सहयोग, दोनों सुनिश्चित करेगा। दूसरी ओर, आर्थिक रूपांतरण का अर्थ भारत की कृषि आधारित आर्थिक प्रणाली को उद्योग आधारित प्रणाली बनाना है। निश्चित रूप से इस रूपांतरण का बेहतर प्रभाव समाज पर पड़ेगा और कृषक समाज अधिक उदारवादी और उद्यमिता की ओर उन्मुख होगा। सहकारी संघवाद के महत्वपूर्ण लक्ष्य को साकार करने और भारत में सुशासन को सक्षम बनाने के लिए नीति आयोग का गठन किया गया है। इस आधार पर कि मजबूत राज्य एक मजबूत राष्ट्र बनाते हैं, नीति आयोग राष्ट्रीय विकास एजेंडा की दिशा में काम करने के लिए राज्यों को ‘टीम इंडिया’ के रूप में एक साथ लाकर भारत सरकार के लिए सवरेत्कृष्ट मंच के रूप में कार्य करता है। इसके लिए नीति आयोग द्वारा कई कदम उठाए गए हैं। इनमें प्रधानमंत्री/ कैबिनेट मंत्रियों और सभी मुख्यमंत्रियों के बीच बैठकें शामिल हैं। राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर पिछड़े जिलों के विकास के लिए आकांक्षी जिला कार्यक्रम का आरंभ, विभिन्न क्षेत्रों में विषय-आधारित व्यापक जुड़ाव, भूमि पट्टे और कृषि विपणन सुधारों के लिए माडल कानूनों का निर्माण और पूवरेत्तर समेत हिमालयी राज्यों और द्वीप विकास के लिए क्षेत्र-विशिष्ट हस्तक्षेप जैसे कार्यो से नीति आयोग सहकारी संघवाद बढ़ाने का प्रयास कर रहा है।