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संयुक्त राष्ट्र में भारत लाए विश्व संसद दिवस घोषित करने का प्रस्ताव- रघु ठाकुर

रघु ठाकुर

वर्ष के 365 दिन में से अधिकांश दिन यू.एन.ओ. के कैलेण्डर में किसी न किसी दिवस के रूप में दर्ज हैं, जो एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय या वैश्विक मान्यता प्राप्त होते हैं। अतः आमतौर पर दुनिया में उनके विषय के बारे में कुछ विस्तार से सरकार, मीडिया और समाज के स्तर पर चर्चा हो जाती है। कुछ दिवसों पर तो देश के अखबारों में पेज के पेज विज्ञापनों से भरे होते हैं और उस विषय पर लेख आदि भी होते हैं। सोशल मीडिया विशेषतः फेसबुक, वाट्सएप व ट्विटर आदि भी इन दिवसों की महत्ता में और कभी कभी शुभकामनाओं के आदान प्रदान में भरे रहते हैं।

तीन दिन पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने फादर्स डे मनाया था और हमारे देश का भी सारा प्रचार तंत्र लोगों की अपने-अपने पिता की याद में भरा था। यह स्वाभाविक भी है और जरूरी भी कि लोग अपने माता-पिता के सद्गुणों, संघर्ष और संस्कार को याद करें। होना तो यह चाहिए कि याद करने के साथ-साथ उन परंपराओं को आगे बढ़ाएं। उसके लिए कुछ त्याग आदि करें। हालांकि मैंने इस विषय पर न कोई सर्वेक्षण किया है और अभी तक ऐसा कोई सर्वेक्षण भी कम से कम मेरी जानकारी में नहीं आया है कि जिसमें इस तथ्य का अध्ययन किया गया हो कि लोग अपने माता-पिता के जीवन संघर्ष और संस्कारों को आगे ले जाने के लिए क्या भूमिका अदा कर रहे हैं।

21 जून को योग दिवस था और इसे समूचे देश में सरकारों, प्रचार-तंत्र और मीडिया में भारी प्रमुखता के साथ स्थान मिला है। मिलना भी चाहिए क्योंकि योग भारत की मौलिक खोज है और हमारे पुरखों ने स्वस्थ जीवन जीने के लिए जो प्राकृतिक तरीके खोजे उनका एक अहम हिस्सा योग का है। योग काफी हद तक बीमारियों से मुक्ति दिलाता है। और व्यक्ति को दवाओं की निर्भरता कम कर अपने योग अभ्यास से स्वस्थ और सक्रिय रहने का मार्ग दिखाता है। परंतु एक बात अवश्य आश्चर्याजनक लगी कि 20 जून रिफ्यूजी डे की चर्चा न तंत्र में, न मीडिया में और न समाज में। यह लगभग नगण्य और उपेक्षित रही जबकि यह समस्या दुनिया की एक बहुत ही गंभीर समस्या है और कई वैश्विक रोगों और संकटों पर उंगली रखती है। खुद यू.एन.ओ. के अध्ययन के अनुसार 2019 में विस्थापितों की संख्या सात करोड़ नब्बे लाख थी जो 2020 में बढ़कर आठ करोड चौबीस लाख हो गई।

एक वर्ष में चैंतीस लाख नए विस्थापित हुए। यह संख्या इसलिए चिंता का कारण है कि 2020 का साल समूची दुनिया में कोरोना लॉकडाउनकाल था जिसमें कस्बों शहरों व प्रदेशों की और अंतर्देशीय सीमाएं भी बंद थी। याने देश की भीतरी व बाहरी दोनों सीमाएं भी बंद थी। देश के बाहर जाना तो दूर की बात देश के अंदर भी आना जाना प्रतिबंधित था। तब भी चैंतीस लाख लोग अपना वतन छोड़कर दूसरे देश की ओर मात्र एक वर्ष में जाने को लाचार हुए यह चिंता का भी विषय है और शोध का भी।

वैसे भी संयुक्त राष्ट्र संघ के अध्ययन के अनुसार दुनिया में दो करोड़ साठ लाख लोग शरणार्थी हैं। याने ऐसे दुखी पीड़ित व्यवस्था व हालात के शिकार लोग जो अपना वतन, जमीन और मिट्टी को छोड़कर किसी दूसरे देश में जाकर शरण खोजने को लाचार हैं। इन करोड़ों लोगों की पीड़ा पर दुनिया मुखर क्यों नहीं है यह भी विचारणीय है?

विस्थापन और शरणार्थी में फर्क है। विस्थापित वे लोग होते हैं जो अपने स्थान से हटकर किसी और स्थान पर जाकर बसने को लाचार होते हैं। इसमें लाचारी के व स्वनिर्णय दोनों शामिल होते हैं। परंतु उनके लिए वापसी की संभावनाएं भी कई बार खुली हो सकती हैं। उन्हें कई बार स्वतः सरकार भी अपने दायित्व के तौर पर बसाती हैं।

निस्संदेह विस्थापन से रोजगार खत्म होने की संभावनाएं रहती हैं। नई बसाहट बसाने के लिए आर्थिक और अन्य प्रकार के संकट होते हैं। अपना जमा जमाया घर छोड़कर नए स्थान पर जाकर बसना एक प्रकार से विकसित पेड़ को निकाल कर अन्यत्र स्थापित करने जैसा जोखिम भरा होता है। अपनेपन से लेकर बोली, भाषा, परंपराएं, खानपान, जलवायु और अपनी मिट्टी से अपनत्व सभी पर विपरीत असर होता है।

परंतु कहीं ना कहीं जाकर रहने के लिए एक छोटी सी छतरी मिल जाएगी इसकी आश्वस्ति भी मिलती है। हमारे देश में पिछले कई सौ साल के इतिहास में करोड़ों लोगों ने रोजगार के लिए पलायन किया है। यह एक प्रकार से स्वैच्छिक और रोजगार की लाचारी का पलायन था। रोजगार की तलाश में कभी स्वेच्छा से तो कभी सत्ता के दबाव में भारत के लोग मॉरीशस, फीजी, दक्षिण अफ्रीका, यूरोप के देश और अमरीका तक में जाकर बसते रहे हैं। यह भी एक प्रकार का स्वैच्छिक और काम की लाचारी का विस्थापन था। पलायन अस्थाई भी हो सकता है और स्थाई भी परंतु विस्थापन अक्सर स्थायी ही होता है। और विशेषतः आजकल विकास के नये ढांचे से विस्थापन की समस्या बहुत बढी है।

शरणार्थी शब्द ही भयावह है जो एक व्यक्ति को अपनी और अपने परिवार की जान -माल, सुरक्षा आदि के लिए अपना मुल्क छोड़कर अन्यत्र भागने को और बसाहट खोजने को लाचार करता है। इसके मुख्य कारण प्राकृतिक आपदाएं, युद्ध, गृहयुद्ध ,दमन, भाषा और परंपरा के भेदभाव, राजतंत्र व तानाशाही प्रणालियां, आबादी की वृद्धि, कम होते प्राकृतिक संसाधन और रोजगार आदि मुख्य कारण होते हैं। सीरिया में 1962 में वहां के पूर्वोत्तर इलाके में कुर्दों की नागरिकता छीन ली गई थी और जहां 62 के पहले लगभग तीन लाख लोग राज्य विहीन कुर्द थे, अब स्थिति यह है कि लगभग एक करोड़ के आसपास कुर्द राज्य से हटाकर राज्य विहीन बना दिए गए हैं तथा सड़सठ लाख लोग दूसरे देशों में भाग चुके हैं। याने लगभग एक करोड़ लोग सीरिया में बेघर हैं और देश छोड़कर भाग जाने को लाचार है। वेनेजुएला में सैंतीस लाख, अफगानिस्तान में सत्ताईस लाख, दक्षिण सूडान में बाईस लाख लोग बेघर हुए हैं। कभी-कभी देशों के विभाजन में भी बड़ी संख्या में लोग शरणार्थी बनने को लाचार होते हैं।

जैसे 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद लगभग एक करोड़ लोग प्रभावित हुए थे और लाखों लोग बेघरवार होकर लाचार शरणार्थी बने थे। 1940 के दशक में जर्मनी में भी हिटलर के नाजीवाद ने लाखों यहूदियों को मरवा दिया था और लाखों लोग देश छोड़कर भागने को लाचार हुए थे।स्टालिन के जमाने में रूस में भी लाखों लोग प्रतिक्रिया वादी कहकर मार दिये गए या देश छोड़कर भागने को लाचार हुए।

फिलिस्तीन और इजराइल की समस्या इसी प्रकार की घटनाओं का एक हिस्सा है। 1969 और 1970 में पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान के हुकमरानों के दमन और हिंसा के चलते लाखों लोग भारत की सीमा में शरणार्थी होकर आए थे और उनके असहनीय बोझ के चलते भारत को हस्तक्षेप करना पड़ा था जिसका परिणाम पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के निर्माण के रूप में सामने आया। तुर्की में छत्तीस लाख शरणार्थी हैं। यह समस्या दुनिया में दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है।

जिस देश में यह शरणार्थी जाते हैं उस देश की अर्थव्यवस्था, जमीन, जल व वायु जैसे प्राकृतिक संसाधन जंगल आदि सभी पर इसका प्रभाव पड़ता है और अब आबादी का दबाव एवं आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों का अभाव इतना बढ़ रहा है कि कोई देश  दूसरे देश के शरणार्थियों का बोझ उठाने का न तो इच्छुक है और ना ही सक्षम। देश अपनी अपनी सीमा पर दीवारें खड़ी करने लगे हैं ताकि शरणार्थी ना पाएं।

प्राकृतिक संसाधनों को जिस प्रकार से दुनिया, सभ्यता और विकास के नाम पर नष्ट कर रही है उसका यह परिणाम है कि अधिकांश दुनिया प्राकृतिक संसाधनों से विहीन हो रही है और पर्यावरण भूख प्यास के नए संकट की ओर बढ़ रही  हैं। अगर इन हालात पर नियंत्रण नहीं हुआ तो दुनिया में नए प्रकार के तनाव पैदा होंगे और दुनिया युद्ध का मैदान  बनेगी।

इन सब समस्याओं का हल क्या है इस पर विचार की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने 19वीं सदी में दुनिया को प्रकृति के संसाधनों के दोहन के प्रति सचेत किया था और कहा था कि प्रकृति के पास इंसान की जरूरत की पूर्ति के लिए सब कुछ है परंतु लालच की पूर्ति के लिए नहीं। महात्मा गांधी दुनिया को अहिंसा और प्रेम की दुनिया बनाना चाहते थे और समूचे विश्व की मानवता को प्रकृति को एकमानव रूप् मानते थे।

डॉक्टर लोहिया 50 के दशक से विश्व के बालिग मतदाताओं के द्वारा निर्वाचित विश्व संसद की कल्पना करते रहे थे और देश व दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करते रहे थे। शरणार्थी, विस्थापन, युद्ध, दमन, प्राकृतिक संसाधन, भूख, प्यास, अकाल, भूकंप इन सभी का मानवीय हल गांधी जी के दर्शन में है। और इसका व्यवस्थागत हल लोहिया के विश्व संसद के सुझाव में है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने बीस जून  रिफ्यूजी-डे तय किया है। उसे मनाने की सूचना जारी की परंतु इतनी गंभीर समस्या के बारे में विचार चर्चा  के लिए कोई महत्व नहीं दिया।

कितना अच्छा होता कि संयुक्त राष्ट्र संघ 20 जून को  रिफ्यूजी डे पर संयुक्त राष्ट्र संघ का विशेष अधिवेशन आमंत्रित करता या फिर कम से कम सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाकर युद्ध, दमन, शरणार्थी और विस्थापन जैसी समस्याओं को दुनिया के विमर्श के केंद्र में लाता तो शायद रिफ्यूजी डे मनाने का कुछ अर्थ होता।

विश्व समाज की ओर से भी इन समस्याओं के बारे में उदासीनता और चुप्पी चिंताजनक है क्योंकि यह एक प्रकार की शरणार्थी और विस्थापन की समस्या पर मौन सहमति जैसी है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ से मेरी यह अपेक्षा अरण्य रोदन जैसी ही है क्योंकि आर्थिक खर्च के लिए ताकतवर व संपन्न देशों के सहयोग पर निर्भर संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व के देशों का नुमाइंदा नहीं बल्कि एक बंधुआ जैसी संस्था बन गई है।

मैं भारत सरकार से अपील करूंगा कि भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ में विश्व संसद दिवस की शुरुआत करने का प्रस्ताव लाए। 12 अक्टूबर लोहिया की पुण्यतिथि इसके लिए सबसे उपयुक्त दिन हो सकता है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।प्रख्यात समाजवादी नेता स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी है।