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राम रहीम की भीड़ के आगे सरकार एवं सिस्टम की ऐसी लाचारी क्यों ? – राज खन्ना

                              राज खन्ना

कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। जनता डरी थी। अदालत चेतावनी दे रही थी। सरकार अपने को तैयार बता रही थी। उम्मीद के मुताबिक़ बाबा के भक्त इस तैयारी पर भारी पड़े। अब लाशें गिनी जा रही हैं। आँका जा रहा है जन-धन का नुकसान। खट्टर जाएंगे कि नहीं? किस- किस पर गिरेगी गाज, जैसे तमाम सवाल- अटकलें जेरे बहस हैं।

गुरूवार को देश की सर्वोच्च अदालत ने निजता पर फैसला सुनाया था। उसे मूल अधिकार का हिस्सा माना था। इसी दिन पड़ोस के हरियाणा में सिरसा, पंचकुला सहित तमाम ठिकानों पर बाबा राम रहीम के भक्त लोकतंत्र की कीमती सौगात इन मूल अधिकारों की अनर्थकारी व्याख्या को आचरण में उतारने की तैयारी में सड़कों पर थे। अगले दिन अदालत द्वारा बाबा को दुराचार का दोषी घोषित किया गया। फिर बाबा के भक्तों ने वही किया जिसके लिए वे घर से निकले थे।

देश-प्रदेश में सरकारेँ हैं।शासन-प्रशासन है। पर शासन- सत्ता के इसके अलावा भी केंद्र हैं। उनकी क़ानूनी मान्यता का प्रश्न निरर्थक है। इस समानान्तर सत्ता के चरणों में चुनी सरकारों- प्रतिनिधियों और नौकरशाही-पुलिस को झुकते देखना त्रासद हो सकता है। पर अजूबा नहीं । 70 साल का यह परिपक्व लोकतंत्र बार- बार ऐसे हादसों से शर्मसार हुआ है।

लोकतन्त्र की सारी शक्ति वोटों में सिमटी है। अकेला वोटर भले अपनी ताकत से अनजान हो लेकिन जो तमाम वोटरों को इशारों में मोड़ने की कूबत रखतें हैं, उनकी ताकत सत्ता की दौड़ में लगे लोगों को खूब मालूम रहती है। बाबा राम रहीम की यह ताकत हरियाणा में हर प्रमुख दल के किसी न किसी मौके पर काम आई है। बाबा ने उसकी कीमत भी वसूली है। इर्द-गिर्द मंडराती सत्ता ने बाबा के आभामण्डल को दीप्ति दी है। भक्तों के इज़ाफ़े में सत्ता का रसायन और मजबूती देता है। बाबा से  दल मदद पाये । बाबा ने उस सत्ता को चुनौती दे डाली। नतीजे बाबा के लिहाज से नहीं परखे जाने चाहिए। उन्हें तो हारना ही है। पर हमारा पूरा तंत्र भी हारा है। उनकी भीड़ के आगे सरकार-सिस्टम कैसा लाचार दिखा यह चिंता के केंद्र में होना चाहिए। पुलिस-प्रशासन पर जो भारी पड़ें। जिनके तांडव से निपटने के लिये सेना बुलानी पड़े।निगरानी के लिए ड्रोन- हेलीकाप्टर की मदद ली जाए।  ऐसी ताकतों के आगे आम आदमी की क्या बिसात । पर विडंवना यह भी है कि व्यवस्था को चुनौती देने और डराने वाली ये शक्तियां इसी समाज से खाद-पानी पा रही हैं।

शिक्षा और जागरूकता के तमाम दावों के बीच बाबाओं की दुकाने खूब चल और चमक-दमक रही हैं। अगर इन बाबाओं की भक्ति में अपना विवेक खोने वाले गरीब-जरूरत मंद हैं तो मध्य वर्ग और खाये-अघाये लोगों की भी अंतहीन कतारें हैं। नाम उनका गुरमीत राम रहीम हो या फिर आसा राम और राम पाल। ये नाम कानून की गिरफ्त में हैं तो बहुत से छुट्टा हैं। सबके अपने भक्त हैं और उनके भक्तों की अटूट आस्था और समर्पण। उस आस्था पर दूसरा सवाल उठाये भी क्यों और उसे इसका अधिकार ही कहाँ? सब जगह अनर्थ हो रहा ऐसा भी नहीं। पर जब तब कहीं  सिसकियाँ गले में घुंट नहीं पातीं  । प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं पाते । सरकारों को कदमों में रखने वालों के सामने वे अड़ के खड़ी हो जाती हैं। तब आसा राम जैसे खुली हवा को तरस जाते हैं । कोई गुमनाम चिट्ठी अदालत पहुँच तवज्जो पा जाती है। कोई अनजाना सा पत्रकार राम चंद्र क्षत्रपति इस चिट्ठी को छापने की कीमत जान देकर चुकाता है। छली गई युवती जिंदगी की परवाह किये बिना बाबा को बेनकाब करके मानती है। भीड़-काफिले से राहगीरों और शासन- प्रशासन को डराने वाले फैसला देने वाले जज के सामने कातर नजर आते हैं। अँधेरे की ताकतों से लड़कर जीतने वालों को सलाम किया जाए। पर इसकी कीमत का भी हिसाब कर लिया जाए। फिर बार-बार ये कीमत क्यों चुकाई जाए? मुख्यमंत्री नाकारा हैं तो आगे- पीछे बदल जाएंगे। चुनाव में उस दल से भी हिसाब भी हो जाएगा। पर कहीं- कभी ऐसे बाबाओं के चरणों पर लोटती भीड़ भी ठिठक कर खुद के बारे में कुछ सोचेगी ?

 

सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।इनके सम सामायिक विषयों पर आलेख देश के कई प्रमुख समाचार पत्रों पर छपते रहते है।