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क्या पूर्वोत्तर के लिए जारी ‘एडवायजरी’ हिंदी राज्यों पर लागू नहीं होती – उमेश त्रिवेदी

                  उमेश त्रिवेदी

देश के सत्ताधीशों के काम काज और कारगुजारियां इस बात की ताकीद हैं कि वो इन अंदेशों को लेकर कतई चिंतित नहीं है कि नागरिकता कानून के विरोध में गहराता जन आक्रोश भारत की सामाजिक समरसता के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सकता है। उनकी कथनी और करनी में छलकने वाले राजनीतिक विरोधाभास आमजनों के संदेहों को पुख्ता करते हैं कि केन्द्र की नीयत में खोट है। उनकी भाव-भंगिमाओं में कहीं भी यह चिंता नहीं झलक रही है कि नागरिकता कानून के विरोध में चटकती चिंगारियों की आग में देश झुलस सकता है अथवा मुल्क एक मर्तबा फिर किसी राष्ट्रीय अनहोनी के शिकंजे में फंस सकता है। सप्ताह भर की घटनाओं के ’पगमार्क’ यह चेतावनी दे रहे हैं कि अमन चैन की मासूम भेड़ों को झपटने के लिए सांप्रदायिकता के बाघ, भेड़िए दरवाजे पर खड़े हैं। पगमार्क का फॉलो-अप संदेहों की धार को पैना कर रहा हैं, जो समाज के लिए घातक हैं। तीन तलाक और राम मंदिर जैसे सांप्रदायिक तनाव से जुड़े मुद्दों के अलावा नोटबंदी, जीएसटी की आर्थिक असफलताएं, बेरोजगारी और आर्थिक मंदी से उपजे असंतोष को हाशिए पर ढकेल कर आगे बढ़ने वाली छह साल पुरानी मोदी सरकार फिलवक्त अपने खिलाफ होने वाले सबसे प्रखर और मुखर जन आंदोलन से रूबरू है, जो हिंसक मोड़ लेने लगा है।

विडंबना यह है कि सरकार नागरिकता कानून के विरोध को महज कानून व्यवस्था से जुड़ा मसला मानकर लाठी-गोली जैसे हथियारों के माध्यम से ही डील कर रही है, जबकि लोगों के इस प्रतिरोध में आमजनों के सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकार और संवेदनाएं मुखर हो रही हैं, जिनके निराकरण के लिए संवेदनशील राजनीतिक पहल जरूरी है। नागरिकता कानून के मामले में भाजपा अपनी ही बनाई रणनीति में फंस गई है। भाजपा मूलत: नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मुद्दे को मुसलमानों तक ही सीमित रखना चाहती थी। पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा के लिए यह कानून गले की हड़्डी बन गया, क्योंकि असम सहित सभी पूर्वोत्तर राज्यों में यह कानून हिंदू-मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन की सीमाओं के पार जाकर उनकी क्षेत्रीय अस्मिता का सवाल बन गया है। जबकि, उत्तर भारत में कानून के विरोध में पनपे आंदोलनों की व्यापकता ने भाजपा को दुविधा में डाल दिया है।

असम की राजनीति घुसपैठियों को हिंदू अथवा मुसलमानों के नाम पर नामजद नहीं करती है। वो किसी भी संप्रदाय के हों, उन्हें कबूल नहीं हैं, क्योंकि वो उनकी क्षेत्रीय अस्मिता के लिए खतरनाक हैं। असमवासियों को यह स्वीकार नहीं है कि हिंदू बंगलादेशी भारतीय हो जाएं। इसको लेकर असम मे फसाद होना सामान्य बात है। मेघालय ने तो आम भारतीयों को, भले ही वो हिन्दू हों अथवा मुसलमान, नागरिक के रूप में खारिज करने का सिलसिला शुरू कर दिया है।

नापना मुश्किल है कि उत्तर भारत में सांप्रदायिक विभाजन के मंसूबे कामयाब होंगे अथवा नहीं होंगे, लेकिन भाजपा चाहती है कि उसकी रणनीति सफल हो। इसीलिए यहां भाजपा अलग तरीके से अपने अधिकारों और अपने अधीन कानूनों का इस्तेमाल कर रही है? गौरतलब है कि केन्द्र सरकार ने जितनी तत्परता से पूर्वोत्तर राज्यों में नागरिकता कानून से उपजे असंतोष के आंदोलन की खबरों के टीवी प्रसारण पर रोक लगाई थी, उतनी तत्परता से उत्तर भारत के राज्यों की घटनाओं के प्रसारण पर रोक नहीं लगाई है।

पूर्वोत्तर की खबरों का प्रसारण भाजपा के लिए नुकसानदेह है, लेकिन उत्तर भारत में यह उसके लिए फायदे का सौदा है। इसीलिए टीवी पर सरकारी नजरिए से दिल्ली-उप्र के आंदोलनों की धमाकेदार हिंसक प्रस्तुति जारी है। इन्हें शूट करने वाले ज्यादातर कैमरों के लैंसों पर भी सांप्रदायिकता रंग चढ़ा है। भाजपा सरकार के इरादे साफ हैं। उसकी रणनीति बंगाल और दिल्ली के विधानसभा चुनाव पर केन्द्रित है, जहां वह राजनीतिक ध्रुवीकरण के जरिए लाभ उठाना चाहती है।इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनावी सभाओं में दर्शकों को समझाते है कि नागरिकता कानून का विरोध करने वालों की पहचान उनके कपड़ों से करें। स्पष्टत: समझ में आता है कि मोदी का इशारा किस ओर है?

जाहिर है दिल्ली-उप्र की घटनाओं की धमाकेदार खबरों को इसलिए अनुशासन में नहीं बांधा गया है, ताकि लोग मोदी के नजरों से आंदोलनकारियों के कपड़ों को देखें और धर्म के नाम पर लामबंद हों। अन्यथा सरकार की जो एडवायजरी उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए जारी होती है, वह उत्तर भारत के हिंदी राज्यों पर लागू क्यों जारी नहीं हो सकती है? अभी तक की रिपोर्टों के मुताबिक सीएए विरोधी आंदोलनों में जितनी तबाही पूर्वोत्तर राज्यों में हुई है, लेकिन उतनी उत्तर भारत के जन-आंदोलनों में नहीं हुई है। फिर भी मीडिया पूर्वोत्तर की घटनाओं को हाशिए पर डाल रहा है, और उत्तर भारत के इलाकों में आग उगल रहा है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 21 दिसम्बर 19  के अंक में प्रकाशित हुआ है।