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नेहरू के विमर्श में ही निहित है मौजूदा ‘हेट-पोलिटिक्स’ का जवाब – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

राजनीतिक बदजुबानी और बदगुमानी के इस दौर में, जबकि आजादी की लड़ाई के नुमाइंदे हमारे पुरखों की ऐतिहासिक विरासत की इबारत में जहर घोलने की कोशिशें परवान पर हैं, जवाहरलाल नेहरू की राष्ट्रीय-पुण्यायी का सस्वर, समवेत पुनर्पाठ अपरिहार्य होता जा रहा है। सारे भारतवासियों को, जो राष्ट्र-निर्माण में जवाहरलाल नेहरू के सकारात्मक योगदान से मुतमईन हैं, उन सभी अवसरों पर नेहरू की जय-गाथा का सहस्त्र-गान करना चाहिए, जो उनकी स्मृतियों से जुड़े हैं। नेहरू के प्रसंगों को ताजा करते रहना न सिर्फ लोकतांत्रिक राजनीति की शुचिता और सहिष्णुता के लिए जरूरी है, बल्कि आजादी के उन ऐतिहासिक पन्नों की रक्षा के लिए भी जरूरी है, जिन पर नफरत की काली स्याही पोती जा रही है।
’हेट-पोलिटिक्स’ के इस दौर में आजादी की विरासत को कलुषता और कटुता से अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए नेहरू पर छोटे-बड़े विमर्श की निरन्तरता वक्त का तकाजा है। इसलिए जरूरी है कि नेहरू के 130वीं जयंती पर हम सब मिलकर उनके राष्ट्रीय योगदान को शिद्दत से याद करें। आजादी के पहले एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में और आजादी के बाद एक राष्ट्र-निर्माता के रूप में देश, काल और परिस्थितियों की उनकी विलक्षण समझ के कारण ही आज भारत आज वहां खड़ा है, जहां सारी दुनिया उसका इस्तकबाल कर रही है। तथ्यों और परिस्थितियों को अनदेखा करके सियासत के चश्मों से नेहरू की हस्ती और हैसियत का जो मूल्यांकन हो रहा हैं, वो सत्यता और तार्किकता की कसौटी पर कतई खरा नहीं है। दिलचस्प यह है कि नए भारत के निर्माण का आव्हान करने वाले मौजूदा भाजपा-सरकार के कर्णधार ही उस बुनियाद को नकारने की कोशिश कर रहे हैं, जिस पर वो खड़े होकर राजनीतिक-दंभ का उद्घोष कर रहे हैं। यहां यह सवाल मौजूं है कि नेहरू की समझदारी पर कैफियत मांगने वाले सभी लोग, चाहे वो प्रधानमंत्री मोदी हों अथवा गृहमंत्री अमित शाह, क्या उन सवालों की राहों से गुजरे हैं, जो राष्ट्र-निर्माण की बुनियाद से जुड़े हैं।
भारत नेहरू की नस-नस में रचा-बसा था, शायद इसीलिए उन्होंने अपनी वसीयत में यह मार्मिक ख्वाहिश जाहिर की थी कि उनकी मौत के बाद उनके अवशेषों अथवा उनकी राख को भारत के खेतों में बिखेर दिया जाए। जहनी तौर पर नेहरू ने भारत की अपनी सकंल्पनाओं का शब्दांकन अपनी किताब ’भारत की खोज’ में किया था। ’भारत की खोज’ याने ’डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का रचना-काल अप्रैल-सितम्बर 1944 है, जबकि वो अहमदनगर जेल में कैद थे। किताब में नेहरू ने सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर भारत की आजादी तक विकसित भारत की बहुआयामी समृध्द संस्कृति, धर्म और अतीत की जटिलताओं का वैज्ञानिक विश्‍लेषण किया है। आजादी के पहले ’भारत की खोज’ के जरिए ओजपूर्ण अतीत को शब्दों में ढालने के बाद नेहरू ने राजनीति के व्यावहारिक धरातल पर उस भारत अथवा इंडिया को ’रि-इन्वेंट’ किया, जो आज दुनिया के सामने है। अथवा ’नए इंडिया’ के रूप में जिसका बखान करते हुए आज के सत्ताधीश थक नहीं रहे हैं।
नेहरू की विलक्षणताओं को नकारने से पहले उनके विरोधियों के इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि क्या नेहरू के बिना भारत वैसा लोकतांत्रिक देश बन पाता, जैसा कि वो आज है? उनके आलोचक भाजपा नेताओं को सोचना चाहिए कि उसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बदौलत ही उनकी यह हस्ती और हैसियत बनी है कि वो नेहरू पर सवाल खड़ा कर पा रहे हैं।
आजादी की पौ फटने के बाद उगे हम जैसे तटस्थ हिंदुस्तानियों के लिए यह नामुमकिन है कि वह उन पंडित जवाहरलाल नेहरू को, जिन्हें उनका समूचा बचपन ’चाचा नेहरू’ के नाम से जानता और दुलारता रहा है, बदनामी के उन तौर-तरीकों या बोझिल और बेहया हर्फों के साथ याद करे, जो आजकल सुनियोजित तरीके से सोशल-मीडिया पर ट्रोल होते रहते हैं। आधुनिक भारत के निर्माता और स्वप्नदृष्टा के रूप में नेहरू के योगदान को खारिज करना संभव नहीं है।
आजादी के आंदोलन की ऐतिहासिक-धरोहर के रूप में महात्मा गांधी के बाद जवाहरलाल नेहरू ही वह शख्सियत हैं, जो देश के जन-मानस के मर्म में रचे-बसे हैं। विभाजन की घड़ियों के बीच आजादी के सुलगते क्षणों में नेहरू ने स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक-व्यवस्था का जो आविष्कार किया, वह सदियों पुराने देश की सभी परम्पराओं की सार्थकता को रेखांकित करने वाला है। देश, संस्कृति और समाज को नई दिशा देने वाले इस महानायक की मूरत लोगों के जहन में सजीव है। नेहरू द्वारा स्थापित लोकतंत्र के प्रतिमानों को तोड़ना-बदलना अथवा ’रिजेक्ट-सिलेक्ट’ करना मुश्किल काम है।
मनुष्य जहन न तो किसी की राजनैतिक-बपौती है, ना ही कोरी स्लेट है, जिस पर बनने वाले अक्स सत्ताधीशों की मर्जी के मुताबिक बनें, मिटें अथवा उभरें… आप कागजों पर लिखी इबारत बदल सकते हैं, जहन में बनी तस्वीर नहीं… आप वर्तमान को अपने अनुसार ढाल सकते हैं, अतीत को नहीं…। नेहरू को इतिहास से ओझल करने या बेदखल करने के प्रयास अथवा बदनाम करने की साजिशें लोकतंत्र को विद्रूप करने वाले कृत्य हैं। देर-सबेर लोग इसे समझेंगे भी और इस पर ’रिएक्ट’ भी करेंगे।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 14 नवम्बर 19  के अंक में प्रकाशित हुआ है।