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20 अक्टूबर 1962 को हुए चीनी हमले के 57 साल बाद ? -राज खन्ना

राज खन्ना

पराजय-अपमान से जुड़ी तारीखें कौन याद रखना चाहेगा ? पर उनसे मुँह चुराना भारी पड़ता है। चीनी हमले की तारीख 20 अक्टूबर 1962 को इसी लिए याद किया जाना चाहिए। सीख-सबक के लिए। याद रखने के लिये के लिए कि वक्त पर मिली चेतावनी की अनदेखी की देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है ? ये याद करने के लिए भी कि देश के दोस्त-दुश्मन की पहचान में गफ़लत के क्या नतीजे होते हैं ? जरूर याद रखने को कि संकट से उपजी हताशा में दूसरे देश से मदद की पुकार सिर पर अपमान की जो गठरी लादती है, उसके बोझ से देश का मस्तक झुकता है।
19/20 अक्टूबर 1962 की रात चीनियों ने हिमालय के उस पार से पूर्वी और पश्चिमी दोनो मोर्चों पर एक साथ हमला बोला था। महीने भर बाद 21 नवम्बर को असम के मैदानी इलाकों में दाखिल होने को तैयार चीनी सेना ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों के पास उनके हौसले और बहादुरी के अलावा कुछ नही था। दुश्मन से लड़ने को आधुनिक हथियार नही थे। ठंड से निपटने के लिए जरूरी कपड़े और जूते नही। सड़क,संचार, खुफिया तंत्र और नेतृत्व-निर्देशन सहित सभी मोर्चों पर विपन्नता । 1383 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे।1696 लापता। 1047 घायल। 3968 बंदी। अक्साई चिन चीन के नियंत्रण में चला गया। भारत की 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर चीन का अवैध कब्जा हो गया। 2 मार्च 1963 को पाक से हुए एक करार के जरिये चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर की 5,180 वर्ग किलो मीटर भूमि और हथिया ली। इस युद्ध में चीन के 722 सैनिक मारे गए थे और 1697 घायल हुए थे। हर मोर्चे पर चीनी भारी पड़े थे। हमने अपनी भूमि और सम्मान दोनो खोया था।
इस युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की हताशा-बेबसी को 19 नवम्बर 1962 को राष्ट्र के नाम प्रसारित उनके संदेश के जरिये समझा जा सकता है, ” विशाल चीनी सेना भारत के उत्तर पूर्व में आगे बढ़ रही है। कल कैमंग क्षेत्र का बोमडिला कस्बा हमारे हाथ से निकल गया। मेरा दिल असम की जनता के लिए उद्वेलित है।” बोमडिला पतन के बाद का हाल मशहूर इतिहासकार राम चंद्र गुहा अपनी पुस्तक ,” भारत गांधी के बाद ” में बयान करते हैं, ” असम में अफरातफरी फैल गई। 20 नवम्बर को तेजपुर पहुंचने वाले एक भारतीय संवाददाता ने पाया कि शहर में सन्नाटा पसरा हुआ है। प्रशासन गौहाटी पलायन कर गया है। पलायन करने से पहले प्रशासन ने कलेक्ट्रेट के कागजात और स्थानीय बैंकों के नोट जला दिए थे। भागने से पहले वहां के स्थानीय पागलखाने के दरवाजे खोल दिये गए थे और भौंचक्के मानसिक रोगियों को उनके रहमोकरम पर छोड़ दिया गया था।”
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अगुवा पंडित नेहरु को संकट और असफलता के इन क्षणों में अमेरिका से मदद की गुहार करनी पड़ी थी। जसवंत सिंह अपनी पुस्तक ,” ए कॉल टू ऑनर ” में लिखते हैं,” नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति जान. एफ. केनेडी को नवम्बर 1962 में दो पत्र लिखे ।” जाहिर तौर पर अपने सहयोगी मंत्रियों या अधिकारियों से परामर्श किये बिना- जैसा उनके जीवनी लेखक एस. गोपाल ने लिखा है – जिसमे उन्होंने स्थिति को निराशाजनक बताते हुए भारतीय वायु क्षेत्र में चीन के साथ लड़ाई में भारतीय वायुसेना की मदद के लिए हर मौसम में क्रियाशील सुपरसोनिक फाइटरों के कम से कम 12 स्क्वॉड्रन्स तुरंत भेजने का अनुरोध किया था। चीनी बेड़ों और हवाई पट्टियों पर हमला करने में भारतीय सेना की मदद के लिए उन्होंने दो बी-47 बमवर्षक स्क्वॉड्रन्स भी मांगे थे।
केनेडी प्रशासन ने सैन्य मदद की भारत की असाधारण मांग पर अपने तत्कालीन विदेश मंत्री डीन रस्क के जरिये तब भारत में अमेरिका के राजदूत जान के. गैलब्रेथ के पास जो दो तार भेजे। उनके ये अंश हैं,
1.अमेरिका भारत को अधिकतम सैन्य मदद इसलिए नही दे पाएगा क्योंकि भारत की अधिकांश सेना पाकिस्तान के खिलाफ एक ऐसे मसले पर तैनात है, जिसमे जनता के आत्मनिर्णय से सीधे जुड़े अमेरिका के हित के कारण 1954 से ही हमे पाकिस्तान के दावों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाना पड़ा है।
2. प्रधानमंत्री की ओर से प्राप्त नवीनतम संदेश का अर्थ भारत और अमेरिका के बीच सैन्य गठबंधन ही नही, बल्कि लड़ाई में , भारत की ओर से शामिल होने के लिए हमारी ओर से पूर्ण प्रतिबद्धता भी है। हम समझते हैं कि हताशा की स्थिति में किसी भी सरकार की यही प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन यह ऐसा प्रस्ताव है, जो भारत की गुटनिर्पेक्ष नीति से मेल नही खाता। अगर नेहरू के मन में यही बात है तो हमारे विचार करने के पहले, उन्हें इस ( गुटनिरपेक्षता के ) बारे में पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए।
राम चन्द्र गुहा लिखते हैं , ” अब उन नीतियों और रवैयों पर पुनर्विचार की जरूरत थी। अब नेहरू को आखिरकार महसूस हो चला था जिसे बल्लभ भाई पटेल ने बहुत पहले भांप लिया था कि चीनी साम्यवाद उसके उग्र राष्ट्रवाद का महज आक्रामक रुप है। सीमा युद्ध ने भारत को अनिच्छुक रुप से संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ़ सोचने के लिए मजबूर कर दिया जो संकट की घड़ी में हथियारों की मदद के साथ सामने आया था जबकि सोवियत संघ ने अपने को इस लड़ाई से अलग-थलग कर लिया था।”
शुरुआती ना नुकुर के बाद केनेडी ने मशीनगन की दस लाख गोली, चालीस हजार बारूदी सुरंग और दस हजार मोर्टार गोले भेजने की इजाजत दे दी। हालांकि यह युद्धक सहायता उस विशाल गठजोड़ से बिल्कुल ही कम थी जिसकी उनके राजदूत ने पैरवी की थी। लेकिन यह उन अमेरिकन की राय में बहुत ज्यादा थी,जो सोचते थे कि भारत इतनी मदद पाने की हैसियत नही रखता। भारत को हथियार आपूर्ति करने के एक घनघोर विरोधी सीनेटर थे जॉर्जिया के रिचर्ड बी रसेल जो सीनेट आर्म्ड फोर्स कमेटी के लंबे समय से अध्यक्ष थे। उनकी राय में भारत अविश्वसनीय मित्र राष्ट्र था। रसेल ने नेहरु को भावनाओं और पूर्वाग्रहों को भड़का कर लोकप्रियता हासिल करने वाला दिखावटी नेता कहा था। हिक़ारत के साथ यह भी कहा था,” उन सीमावर्ती पहाड़ी इलाकों से भारतीय अपने को खदेड़े जाने के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं, जो उनका सुरक्षात्मक किला हो सकता था।”
डॉक्टर कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा,” 1956 में कृष्णा मेनन के बतौर रक्षामंत्री नियुक्ति के बाद सैन्यबल के परम्परागत प्रशासन में दुर्भाग्यपूर्ण बदलाव हुए थे। सेना में राजनीतिकरण के तत्व लाने के वही जिम्मेदार थे। कुछ ही वर्षों में इसके बुरे और विनाशकारी परिणाम हुए। दृढ़ निश्चयी, घमंडी और संभ्रान्ति की हद तक शक्की कृष्णा मेनन ने जवाहर लाल से अपनी निकटता का पूरा इस्तेमाल किया और रक्षा मंत्रालय और उससे भी बदतर, सेना बलों में अपने लोगों को बढ़ाया। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल पी. एम. थापर को विनम्र लेकिन काफी कमजोर बताते हुए कर्ण सिंह लिखते हैं कि जनरल बी. एम. कौल को मेनन ने आगे बढ़ाया। वह नेहरू जी के भी काफी करीब थे। उनकी नियुक्ति बतौर चीफ आफ द जनरल स्टाफ कर दी गई और व्यवहार में वही सेना का काम देखने लगे। वृद्ध होते प्रधानमंत्री, एक घमंडी और सत्तालोलुप रक्षामंत्री, कमजोर आर्मी चीफ और षडयंत्रकारी व अति महत्वाकांक्षी चीफ आफ द जनरल स्टाफ- यही वह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति थी, जो आने वाली विनाशपूर्ण विफलता के लिए उत्तरदायी थी।” खुद को नेहरु का प्रबल प्रशंसक बताते हुए कर्ण सिंह जोड़ते हैं ,” निर्विवाद नेता के आसपास ऐसे लोग नही होते जो उससे निर्भीकता और ईमानदारी से बात कर सकें।” काफी दबाव के बीच पंडित नेहरु ने मेनन का इस्तीफा लिया। जनरल थापर और जनरल कौल ने भी इस्तीफा दिया।
देश हार के गम में था। गुस्से में भी। पर देश भक्ति के ज़ज्बे में एकजुट। फिर उठ खड़े होने के संकल्प साथ। पर इस हार ने उसके नायक को तोड़ दिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि धूलधूसरित। देश भी उनकी ओर से मायूस। कांग्रेस के भीतर उनके नेतृत्व को अभी भी चुनौती नही थी, लेकिन उनका डिगा आत्मविश्वास चेहरे से देहभंगिमा तक तारी था। कर्ण सिंह को लगता था,” जैसे वे बहुत सिकुड़ गए और जैसे उनकी उम्र भी तेजी से बढ़ने लगी।” 1961 में दिल्ली में अपनी तैनाती के बाद नेहरु के नजदीक पहुंचे अमेरिकी राजदूत गैलब्रेथ जो उनसे निजी तौर पर काफी प्रभावित थे, ने चीन युद्ध की हार के बाद महसूस किया,” मैंने उन्हें थके हए इंसान के रुप में पाया। उनके चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी। वे बुझे-बुझे से लग रहे थे और मुझे बहुत खराब लगा। उन्होंने कहा कि भारत को किसी भी कीमत पर सैन्य सहायता चाहिए ।” और दिग्गज सांसद हरि विष्णु कामथ ने युद्ध के बाद के नेहरु को संसद में इस रुप में पाया, ” वे एक वृद्ध व्यक्ति की तरह लग रहे थे, काफी कमजोर और थके हुए से…. उनकी चाल मन्द थी, वे झुककर चल रहे थे। वे दो कतारों के बीच से धीरे-धीरे लड़खड़ाते कदमों से चल रहे थे। उन्होंने बैठते वक्त बेंच के पिछले सिरे का सहारा लिया। कामथ ने गुजरे सालों की उनकी चुस्ती को याद किया,” मद्रास के कांग्रेस अधिवेशन में जहां नेहरु छरहरे रुप से और तन कर एक जिंदादिल नेता के रुप में खड़े थे या फिर इलाहाबाद में जहां नेहरु एक ही बार में उछलकर दो कदम चल रहे थे, जबकि मैं उनके पीछे होता और सीढ़ियों पर उनके पीछे-पीछे भागता था।” अटल जी ने पंडित नेहरु के निधन के बाद सदन में उन्हें याद करते हुए कहा था, ” आज एक सपना खत्म हो गया। एक गीत खामोश हो गया। एक लौ बुझ गई। भारतमाता ने अपना सबसे सबसे कीमती सपूत खो दिया।” सच तो यह है कि इस श्रध्दांजलि से डेढ़ साल पहले चीन से दोस्ती के नाम पर मिले घात और हार के अपमान से जीते जी ही वह बहुत कुछ खो चुके थे।
उस दौर के पंडित नेहरु की उदास मनःस्थिति और टूटी देहभाषा सिर्फ उनकी ही तो नही थी। सिर्फ नायक नही। देश हारा था। मस्तक- कंधे सिर्फ उनके क्यों सारे देश के झुके थे। हताशा-निराशा। गम-गुस्सा।अपमान सब सारे देश का। वक्त निजी हार-अपमान को प्रायः भुला देता है। देश के सवाल पर यह मुमकिन नही होता। होना भी नही चाहिए। चीन के हाथों मिली अपमानजनक हार भूलने वाली भी नही है। सदन से सड़कों तक उसे लेकर न जाने कितना बोला गया। शिकायत-सफाई में न जाने कितना लिखा गया। कौन इनकार करेगा कि देश सिर्फ चीन को पहचानने में नही अपनी सामरिक-कूटनीतिक तैयारियों में भी बुरी तरह चूका। सरदार पटेल के 7 नवम्बर 1950 के पंडित नेहरु के लिखे उस पत्र जिसमे चीन के इरादों और उससे जुड़े खतरों के प्रति आगाह किया गया था, की अनदेखी की अपमानजनक बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ी।
पिछले पचास साल में भारत- चीन सीमा पर गोली नही चली है।1979 में विदेश मंत्री के रुप में अटल बिहारी बाजपेयी की चीन यात्रा के साथ एक बार फिर दोनों देशों के बीच उच्चस्तरीय संवाद-मुलाकात का सिलसिला शुरु हुआ । 2017 में डोकलाम तनाव के बाद वुहान समिट और साबरमती से लेकर हाल की महाबलिपुरम की चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मुलाकातें। मुस्कुराती तस्वीरें और दोनों नेताओं की गर्मजोशी भरी बातें। पर हासिल पर हमेशा सवाल। भारत के लिए चीन अभी भी उतना ही अविश्वसनीय और शत्रुतापूर्ण। दुनिया के किसी मंच पर भारत को घेरने और रास्ता रोकने का कोई मौका नही छोड़ता। पाकिस्तान के लिए वह युद्ध भले न करे लेकिन उसकी तरफदारी में और आतंकवादियों के हक में खड़े होने और खुलकर हिमायत में बोलने से परहेज नही। भारत के बाजार पर उसका दखल बढ़ता जा रहा है, फिर भी भारत के हितों के हमेशा ख़िलाफ़ । कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मानने को वह तैयार नही। जब तब अरुणांचल और अन्य दूसरे भारतीय इलाकों पर वह अपना दावा ठोंकता रहता है।
ऐसा क्यों ? शायद इसलिए क्योंकि आज भी वह सामरिक मोर्चे पर भारत को बड़ी चुनौती नही मानता।डोकलाम विवाद के दौरान अरुण जेटली के राज्यसभा में बयान कि ये 1962 का भारत नही है, पर चीन काफी लाल पीला हुआ था। तत्कालीन विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के बयान पर भी उसकी प्रतिक्रिया तीखी थी। बाद में कूटनीतिक चैनलों के जरिये दोनो देशों की फौजें पीछे हटने के साथ ये मसला शांत हो गया था। विडंवना ये है कि चीन भले भारत के आंतरिक मामलों में दख़ल देने से बाज न आये लेकिन भारत उससे जुड़े मसलों पर आमतौर पर चुप्पी ही साधे रखता है। फिर चाहें शिनजियांग प्रान्त में वीगर मुसलमानों को दी जा रही यातनाएं हों या फिर उसके दूसरे क्षेत्रों में मानवाधिकारों का उल्लंघन या लगातार जारी विस्तारवादी साजिशें।
1962 में भारत-चीन सीमा पर चीन की खतरनाक गतिविधियों की खबरों के बीच उस समय तक रिटायर हो चुके थल सेनाध्यक्ष जनरल थिमैय्या से सवाल हुआ था कि क्या भारत चीन का सामना कर सकेगा ? थिमैय्या का जबाब था,” एक सैनिक के तौर पर खुली लड़ाई में मैं ऐसा नही मानता कि भारत अपने बल पर चीन का सामना कर सकेगा।” 1962 और 2019 के बीच 57 साल का लंबा वक्त बीत चुका है। माना जाता है कि देश ने 1962 की हार से बहुत सबक सीखे। काफी तैयारियां की। इस बीच पाकिस्तान से 1965, 1971 और 1999 के युद्ध भी जीते। युद्ध किसी समस्या का समाधान नही। भारत कभी युद्ध चाहता भी नही। पर चीन उस पर युद्ध थोप ही दे तो क्या स्थिति होगी ? मोदी-शी जिनपिंग की ताजा मुलाकात के फौरन बाद देहरादून के एक कार्यक्रम में कारगिल युद्ध के समय सेनाध्यक्ष रहे जनरल वी पी मालिक का कहना था,”चीन भारी पड़ेगा।” अलग-अलग मौकों पर कई अन्य सैन्य विशेषज्ञ भी चीन के खतरे को लेकर कुछ ऐसी ही चेतावनियां देते रहे हैं। हर भारतवासी चाहेगा कि वे झूठी साबित हों। फिर भी लड़ना ही पड़े तो भारत जीते और सिर्फ जीते। ””और इस जीत के लिए भारत को 1962 के सबक को कभी नही भूलना है। याद करते हुए , इस फिक्र के साथ कि भारत की बहादुर सेना की युद्धक जरूरतें अभी भी गुजरी या मौजूदा सरकारें पूरी नही कर सकी हैं।

 

सम्प्रति- लेखक राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।