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कांग्रेस एक बार फिर सोनिया गांधी के हवाले – राज खन्ना

राज खन्ना

राहुल गांधी और कांग्रेसी दोनों ही फैसले पर अटल रहे। दोनों की बात मान ली गई। राहुल अध्यक्ष नही रहेंगे। पर पार्टी की इच्छा के मुताबिक अध्यक्ष गांधी परिवार से ही रहेगा। सोनिया गांधी ने अंतरिम अध्यक्ष की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली है। 134 वर्ष पुरानी कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष के तौर पर सबसे लम्बा 19 वर्ष का कार्यकाल पहले ही सोनिया के नाम पर दर्ज है। वह 1998 से 2017 तक अध्यक्ष रह चुकी हैं। नया कार्यकाल उस रिकार्ड को और अजेय बनाएगा। पार्टी की बागडोर कौन संभाले , इसका फैसला वह पार्टी ही करेगी। राहुल गांधी ने मौका दिया कि पार्टी उनके परिवार के बाहर से कोई अध्यक्ष चुन लें। 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजों के फौरन बाद उन्होंने इसकी पेशकश की। 3 जुलाई को इस्तीफे की चिट्ठी सार्वजनिक की। बीच के सवा दो महीने पार्टी के नेता उन्हें मनाने की कोशिश करते रहे। वह इंकार पर कायम रहे। इस बीच पार्टी अनिर्णय में झूलती रही। सदन और बाहर दोनो जगह पार्टी की कमजोरियां उजागर होती रहीं। लोकसभा चुनाव की हार ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया। उस नुकसान को सीटों की गिनती से नापा जा सकता है । बाद में जब हार से उसे उबरना चाहिए था, तब नेतृत्व संकट ने उसका मनोबल और तोड़ दिया। उसे कैसे मापेंगे ?
गुजरे सवा दो महीने का संदेश साफ है। पार्टी को गांधी परिवार के बाहर नेतृत्व स्वीकार नही है। मतदाताओं के बीच परिवार भले कमजोर साबित हो रहा हो लेकिन पार्टी पर उसकी पकड़ बरकरार है। वह नेतृत्व छोड़ना भी चाहे तब भी पार्टी उन्हें छोड़ने को तैयार नही है। पार्टी लगातार नीचे जा रही है। फिर भी पार्टी को हार कुबूल है। ऐसा क्यों ? चूंकि पार्टी मानती है कि मतदाताओं से बढ़ती दूरी के बीच भी पार्टी को जोड़े रखने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार में है। पार्टी के परिवार से इतर बड़े नाम हैं, पर वे पार्टी के भीतर ही बौने हैं। लोकतंत्र में किसी पद की चुनौती को स्वीकार करने के लिए आगे आने में कुछ भी गलत नही है। समर्थक नाम आगे बढ़ाएं, इसमे भी हर्ज़ नही। राहुल के बार बार इंकार। प्रियंका का नाम आगे करने पर ऐतराज। सोनिया गांधी की सेहत से जुड़ी सीमाएं। इन सबके बीच भी कोई आगे आने की हिम्मत जुटा नही सका तो इसकी भी वजहें होंगी।
1947 के बाद के 72 सालों में लगभग 37 साल पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों में रही है। पंडित नेहरू के तीन साल, इंदिरा जी के सात , राजीव गांधी के छह , सोनिया गांधी के 19 और राहुल गांधी के अध्यक्ष के नाते लगभग पौने दो साल इसमे शामिल हैं। दिलचस्प है कि परिवार से इतर अध्यक्षों के रहते भी परिवार की ही चली। जिसने सवाल खड़े किए, उसने बाहर का रास्ता देखा। 1947 के बाद से एक लम्बी फेहरिस्त है, कांग्रेस से नाता तोड़ने वाले नेताओं और समूहों की। कई पार्टियां बनीं। टूटीं। कभी कांग्रेस में वापस आयीं। कभी और कहीं विलीन हुईं। कुछ अपना क्षेत्रीय स्वरूप कायम रख पायीं। पर कांग्रेस से निकली पार्टियां उसका राष्ट्रीय विकल्प नही बन पायीं। 1969 का विभाजन ऐतिहासिक था, जब एस निजलिंगप्पा के अध्यक्ष रहते उस दौर के दिग्गज नेता मोरारजी देसाई, के कामराज, एस के पाटिल और अतुल्य घोष आदि इंदिरा विरोधी खेमे में थे। कांग्रेस (ओ ) नाम से पहचानी गई इस पार्टी का सफर 1977 में जनता पार्टी में विलय के साथ ठहर गया। इंदिरा जी ने पार्टी और सरकार दोनो पर पकड़ साबित की। 1971 की बड़ी जीत के जरिये अपने नेतृत्व के साथ ही अपने नियंत्रण की कांग्रेस को उन्होंने असली साबित किया। 1977 की हार के बाद दूसरा बड़ा बंटवारा था, जब 1979 में इंदिरा जी को चुनौती देने वाली कांग्रेस ( अर्स ) वजूद में आयी। देवराज अर्स, वाई बी चह्वाण, शरद पवार, डी के बरुआ, ब्रह्मानंद रेड्डी, ए के अंटोनी , प्रिय रंजन दास मुंशी और पी उन्नीकृष्णन जैसे तमाम नेता इस पार्टी में थे। यह पार्टी भी जल्दी ही ओझल हो गई। 1994 में नरसिम्हा राव के दौर में कांग्रेस ( तिवारी ) अस्तित्व में आई थी। इसमे गांधी परिवार के हिमायती नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, नटवर सिंह, शीला दीक्षित , के एन सिंह आदि शामिल थे। 1996 में अपने बूते यह पार्टी ढेर रही। 1998 में पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथों में थी और उसी के साथ कांग्रेस ( तिवारी ) का उसमे विलय हो गया। 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल पर अलग राह लेने वाले शरद पवार की एन सी पी अरसे से महाराष्ट्र में कांग्रेस की सहयोगी है। यह पार्टी भी अपने वजूद के लिए जूझ रही है।
इंदिरा जी ने 1977 की हार के बाद 1980 में वापसी की थी। राजीव गांधी 1984 की जीत को 1989 में कायम नही रख सके। 1991 से 2014 के बीच कांग्रेस की अगुवाई में तीन सरकारें बनी। इनमे 2004 और 2009 की सरकारों के वक्त पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथों में थी। पर 1984 के बाद कांग्रेस अकेले बहुमत नही जुटा सकी। 2014 और 2019 की हार तो सबसे अधिक मारक थी , जब पार्टी विपक्ष की मान्यता लायक भी नही रही। 2014 में सोनिया तो 2019 में राहुल पार्टी के अध्यक्ष थे। मतदाता उनके नेतृत्व में लगातार अविश्वास जाहिर कर रहे हैं। लेकिन पार्टी का उन पर विश्वास अडिग है।
नेतृत्व चुनना पार्टी का आंतरिक मामला है। पर इससे आम आदमी की चिंताएं जुड़ी हैं। लोकतंत्र की सेहत के लिए सिर्फ स्थिर सरकार ही नही , मजबूत विपक्ष भी चाहिए। विपक्ष को यह मजबूती सरकार नही देगी। उसके लिए उसे खुद खड़े होना , अड़ना और लड़ना होगा। सरकार द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हनन पर सदन और बाहर सिर्फ विलाप से काम नही चलेगा। संख्या बल की फिक्र किये बिना सदन में मजबूती से और बाहर जनजुड़ाव के जरिये लड़ाई लड़नी होगी। कांग्रेस ऐसा कर पा रही है ? सदन से बाहर तक वह दिग्भ्रमित नज़र आ रही है। तीन तलाक और धारा 370 जैसे सवालों पर पार्टी का पक्ष बिखरा-बिखरा था। रणनीति और तैयारी का अभाव उसकी ओर के अधिकांश भाषणों में नज़र आया। पार्टी जनभावनाओं से जुड़ने को तैयार नही और जनभावनाओं को अपने अनुरूप ढालने की उसकी कोशिशें नज़र नही आतीं। मुकाबला ऐसे प्रतिद्वंदी है , जो जीत की खुमारी में आराम नही फरमा रहा। उसकी मेहनत चुनावी दिनों जैसी ही है। सरकार और संगठन दोनो मोर्चों पर । वह अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं। देश उसे देख-सुन रहा है।

कांग्रेस को समझना होगा कि प्रतिद्वंदी के एजेंडे में ‘ कांग्रेस मुक्त भारत ” शामिल है। ऐसे में मुकाबले के लिए अध्यक्ष पद छोड़ने के साथ दोगुनी मेहनत के राहुल के आश्वासन काफी नही होंगे। सिर्फ ट्वीट से भी कुछ नही होना। उत्तर प्रदेश में वापसी के लिए प्रियंका की यदा-कदा आमद से भी बात नही बनेगी । भाजपा के पास सिर्फ सत्ता नही है। उनके पास ऐसा संगठन है , जिसकी मजबूत आधारभूमि संघ और उससे जुड़े संगठनों ने लगातार तैयार की है। फिर भी वे ठहर नही गए हैं। उसे लगातार मजबूती दे रहे हैं। उनसे मुकाबले के लिए बड़ी तैयारी और अनथक श्रम की जरूरत है। यह जिम्मेदारी बीमार सोनिया पर डाली गई है। साथ में राहुल गांधी हैं , जिनके रुख़ का कोई ठिकाना नही रहता। प्रियंका हैं , जो दो कदम आगे बढ़ती और फिर भाई से आगे न निकल जाने के संकोच में ठिठकती नज़र आती हैं। साथ में वे तमाम नेता भी हैं, जिन्हें गांधी परिवार से चमत्कार का इंतजार है !

 

सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।