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‘हेट-पोलिटिक्स’ के बीहड़ों में ‘नेहरू’ की लोकतांत्रिक-तलाश – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

हेट-पोलिटिक्स की पराकाष्ठा के खतरनाक दौर में वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ प्रियंका गांधी की उम्मीदवारी पर राहुल गांधी का वीटो लोकतंत्र में नई उम्मीदों को पनाह देता नजर आता है। राजनीतिक गलियारों में यह खबर बेवजह नहीं तैर रही थी कि प्रियंका गांधी मोदी के खिलाफ चुनावी जंग में उतर सकती हैं।  मोदी के खिलाफ संघर्ष की लालसा उनका स्टंट, शिगूफेबाजी या जुमलेबाजी नहीं थी। वो इसको लेकर वाकई गंभीर थीं। उनके अपने जायज राजनीतिक तर्क थे, जो मोदी के खिलाफ उनके उतरने की जरूरतों का समर्थन करते थे। ‘आज तक’ अथवा ‘एनडीटीवी’ जैसे चैनलों की वेब-साइटों पर मौजूद इस खबर की अंतर्कथाओ ने राहुल के वीटो के वैचारिक-विमर्श को उद्घाटित किया है। राहुल का सोच घृणा से तरबतर मौजूदा पोलिटिक्स की पथरीली पगडंडियों पर प्रहार करता है। सोशल-मीडिया पर सक्रिय ट्रोल-आर्मी के घृणास्पद वैचारिक-द्वंद्वों से लहूलुहान माहौल में नेहरूवादी लोकतंत्र की यह तलाश एक स्वस्थ विमर्श को स्पेस देती है, परम्पराओं के पुनरावलोकन की मांग करती है और नेहरू-युग अथवा अटलजी के जमाने की ओर लौटने की गुजारिश करती है।

प्रियंका के वाराणसी से चुनाव लड़ने की अटकलों की शुरुआत दस-पंद्रह दिन पहले हुई थी। रायबरेली से चुनाव लड़ने के आग्रह के जवाब में प्रियंका ने कहा था कि रायबरेली क्यों, वो तो वाराणसी से भी चुनाव लड़ सकती हैं। उनके इस बयान के बाद से ही उनके चुनाव लड़ने की अटकलों का सिलसिला दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। प्रियंका ने चुनाव लड़ने का फैसला कांग्रेस नेतृत्व पर छोड़ रखा था और राहुल गांधी इन सवालों पर चुप्पी ओढ़ लेते थे। जाहिर है कि पार्टी और पारिवार के स्तर पर वैचारिक गहमागहमी के चलते राहुल किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे थे।

अब जबकि वाराणसी से कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप मे अजय राय मैदान में उतर चुके हैं, उन तर्कों पर भी गौर करना जरूरी है, जिनको लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बीच मतांतर था। इसके केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व था, जो लोकतंत्र की कसौटियों को लगातार कमजोर कर रहा है। वैसे भी राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए यह हैरानी का विषय था कि आखिरकार प्रियंका मोदी के खिलाफ चुनावी-समर में उतरने का जोखिम क्यों उठाना चाहती थीं? इस परिप्रेक्ष्य में  प्रियंका का पहला तर्क यह था कि प्रधानमंत्री मोदी अपने विरोधियों को राजनैतिक विरोधियों से ज्यादा अपना व्यक्तिगत विरोधी समझते हैं, इसलिए उन्हें उन्हीं के क्षेत्र में घेरना चाहिए। दूसरा, प्रियंका कहना यह भी था कि वो हारें, चाहे जीतें, कार्यकर्ताओ में इसका जबरदस्त संदेश जाएगा, जिससे कांग्रेस को भविष्य मे मदद मिलेगी।

पूर्वी उप्र की प्रभारी के नाते प्रियंका गांधी के इन तर्कों को राहुल ने कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू की परम्पराओं की बुनियाद पर नकार दिया। राहुल का कहना है कि जवाहरलाल नेहरू अपने घोर विरोधी राममनोहर लोहिया, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और उनके समय के युवा नेताओं की काफी इज्जत करते थे। उनकी कोशिश होती थी कि इन  नेताओं की संसदीय-राहों में बेमतबल रोड़े नहीं अटकाए जाएं। नेहरू का मत था कि ऐसे विचारशील दिग्गज नेताओं की बदौलत ही लोकसभा का रुतबा और विश्वास बढ़ता है। इस मसले पर प्रियंका का जवाबी-तर्क था कि मोदी और लोहिया-अटलजी में जमीन-आसमान का फर्क है। मोदी लोहिया या अटलजी की तरह सोचने वाले नेता भी नहीं हैं। मोदी के बारे में लोकतंत्र की नेहरू-थीसिस को ध्यान में रख कर निर्णय नहीं करना चाहिए। जब मोदी लोहिया-अटलजी की तरह नहीं सोचते हैं, तो हमें क्यों नेहरू की तरह सोचना चाहिए?

तय है कि प्रियंका के बारे में राहुल गांधी के फैसले को मोदी की ट्रोल-सेना फूंक मार कर उड़ा देगी कि हार के भय से प्रियंका मैदान में नही उतरीं, लेकिन इस कहानी को यूं ही दरगुजर करना मुनासिब नहीं है। भले ही नेहरूवादी लोकतंत्र के प्रवक्ता के रूप में राहुल इन आरोपों से भी नहीं बच सकें कि राजनीतिक-शिष्टाचार के विपरीत वो प्रधानमंत्री को चोर कहते हैं, क्योंकि उनके नेहरूवादी सोच के दिग्दर्शन पहले भी होते रहे हैं, इस सिलसिले को राहुल के भाषणों में तलाशना चाहिए। वो अक्सर कहते है कि वो नफरत की राजनीति पसंद नहीं करते हैं। उन्होंने अपने घर में अपनी दादी और पिता की हत्याओं के दर्द को भुगता है। वो जानते हैं कि नफरत के तीर कितना दर्द फैलाते हैं?

बहरहाल, नफरत की आंधियों के बीच नेहरू के लोकतंत्र की वापसी की यह पहल परिकल्पनाओं जैसी लगती है। क्योंकि खुद भाजपा के भीतर ही चिंगारियां चटक रही हैं। सोशल-मीडिया  के कलह-कुंड में सद्भावना और सदाशयता की सहस्त्र-धाराएं आरोपों की आग में कब भाप बनकर खो जाएंगी, यह पता भी नहीं चलेगा।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 26 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।