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साथ-साथ कैसे चलेंगे मॉब लिंचिंग और गांधीवाद – अरुण पटेल

अरूण पटेल

गांधीवाद को लेकर पिछले कुछ सालों से अलग-अलग ढंग से व्याख्यायें सामने आती रहीं हैं। एक धड़ा वह है जो वास्तविक गांधी दर्शन और गांधीवाद के प्रति आचार-व्यवहार को समर्पित होकर उसे अंगीकार करने के विचारों से ओतप्रोत है तो दूसरा धड़ा ऐसे लोगों का है जो महात्मा गांधी के विचारों का उनके जीते-जी और उनके न रहने के बाद भी धुर-विरोधी रहा है। आजकल राजनीतिक फलक पर जनमानस में अपनी गहरी पैठ बिठाने के लिए गांधीवाद का सहारा वे भी लेने लगे हैं जिन्हें गांधीजी या गांधीवाद में कभी आस्था नहीं रही? यही कारण है कि गांधीवाद को लेकर तरह-तरह की व्याख्यायें सामने आ रही हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गांधीवाद को लेकर अपनी-अपनी सुविधा अनुसार जो व्याख्यायें सामने आ रही हैं उनकी तुलना उस हाथी से की जा सकती है जिसकी व्याख्या अंधो का समूह कर रहा हो। यही कारण है कि जो जिस बात को अपने मनमाफिक समझता है उसको लेकर गांधीवाद की व्याख्या करने लगता है। बीते सप्ताह भोपाल में आयोजित 79वें भारतीय इतिहास कांग्रेस के तीन दिवसीय अधिवेशन में जो मुद्दे की बात उभर कर सामने आई उसका केंद्रीय स्वर यही था कि देश में मॉब लिचिंग और गांधीवाद की विचारधारा एक साथ अंगीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि गांधी दर्शन में हिंसा का कोई स्थान नहीं है।

इस समय देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 150वीं जयंती के आयोजन हो रहे हैं इसलिए गांधीवाद को लेकर भी चर्चा पूरी तरह प्रासंगिक बन गयी है। अनेकों स्थानों पर जो कार्यक्रम हो रहे हैं उसमें भी गांधी जीवन दर्शन और उसकी प्रासंगिकता पर विचार मंथन चल रहा है। भारतीय इतिहास कांग्रेस के अधिवेशन में दो दिवसीय सेमीनार का भी आगाज हुआ। भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने इस बात पर जोर दिया कि गांधीजी ने सिद्धान्तों और बहुलतावाद के आधार पर देश निर्माण की राह दिखायी। मध्यप्रदेश के प्राचीन इतिहास, सम्राट अशोक और अकबर से लेकर गांधीजी की प्रासंगिकता पर भी गंभीर परिचर्चाएं हुईं और लगभग 250 शोधपत्र भी प्रस्तुत हुए। एक ओर जहां गांधी की प्रासंगिकता को लेकर गंभीर चिन्तन-मनन हुआ तो वहीं अलीगढ़ इतिहासकार सोसायटी की ओर से भारत के निर्माता अशोक, अकबर, राममोहन राय और जवाहरलाल नेहरु से संबंधित विषयों पर भी परिचर्चाओं का लम्बा दौर चला। दूसरे दिन भारतीय इतिहास कांग्रेस में आकर्षण का केन्द्र मध्यप्रदेश के इतिहास पर केंद्रित दो दिवसीय सत्र की शुरुआत भी रही। महात्मा गांधी पर आधारित सत्र की शुरुआत देश के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने की, जिन्होंने ‘एथिंक्स आफ गांधी एण्ड द डेड वेइट आफ स्टेट क्राफ्ट’ शीर्षक के तहत अपना संबोधन केंद्रित रखा। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि देश के निर्माण को लेकर हम कभी भी अंतिम परिणति तक नहीं पहुंच सकते, क्योंकि यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो कि लगातार विकसित होती रहती है।

अंसारी का कहना था कि स्वतंत्रता आंदोलन ने इस प्रक्रिया के लिए एक मंच उपलब्ध कराया जहां विविधता व बहुलता को भी आवाज मिली। आजादी के आंदोलन में एक महत्वपूर्ण सवाल सबको उद्धेलित कर रहा था कि आखिर आंदोलन की राह क्या होगी? धार्मिक दार्शनिक विरासत भारतीयों के मन-मस्तिष्क में हमेशा से एक तथ्य के रुप में उपस्थिति रही है, वहीं एक दर्शन सीमा विहीन दुनिया की वकालत भी करती रही है। ऐसे दौर में महात्मा गांधी ने भारतीय विरासत व उसकी प्रक्रिया को आत्मसात करते हुए देश निर्माण और आंदोलन का ढांचा खड़ा किया। अंसारी ने साफ किया कि गांधीजी कुछ सिद्धान्तों को लेकर हमेशा स्पष्ट रहे जिसमें सिद्धान्तों के बिना राजनीति बेहद प्रमुख रही। आंदोलन के साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता को लेकर भी गांधीजी बेहद सचेत थे। देश की विविधता और बहुलता के मूल प्रेरणा हमेशा गांधीजी की चेतना में उपस्थित रही। इसी की एक परिणिति हम संविधान की प्रस्तावना में भाईचारे के रुप में देखते हैं। उन्होंने यह रेखांकित करने की कोशिश की, कि देश के लगातार निर्माण की जो प्रक्रिया आज चल रही है उसे गांधीजी के सिद्धान्तों के संदर्भ में समझना व लागू करना होगा, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हमें यह भी समझना होगा कि लगातार नव निर्मित होते देश में उसकी दिशा किसी दोहरेपन की शिकार न हो जाये। कुल मिलाकर अंसारी ने जो बात कही उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि साध्य की प्राप्ति के साथ-साथ साधन को लेकर भी सचेत होने की नितान्त आवश्यकता है। राजनीति के मौजूदा दौर में कुछ दशकों से, सत्ता प्राप्ति राजनीतिक दलों का एकमेव लक्ष्य हो गया है और साध्य की पवित्रता गौण हो गयी है। सत्ता पर आना और सत्ता में बने रहने की महत्वांकाक्षा के कारण ही देश की राजनीति में मूल्यों की गिरावट असली कारण है। जितनी जल्दी मौजूदा राजनीतिक दल इसे समझते हुए इस प्रवृत्ति से छुटकारा पा लेंगेे उतना ही जल्दी देश और राजनीति का भला होगा तथा साख का जो संकट पैदा हो गया है वह तिरोहित हो जायेगा।

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने उद्घाटन सत्र के अपने सम्बोधन में मौजूदा समय में उन शक्तियों की ओर इशारा जो इतिहास को मिथ और मिथक के आधार पर फिर से लिखना चाहते हैं। दिग्विजय की नजर में यह कोशिश इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि यह तथ्यों व भारतीय परम्पराओं के साथ एक विरोधाभास पैदा करती है जो हमेशा ही वैज्ञानिक सोच को आत्मसात करने की बात करती है। दिग्विजय सिंह ने रेखांकित किया कि आज भी देश का आम आदमी भारत की आत्मा के साथ खड़ा है। जहां दिग्विजय ने कुछ लोगों के अपने-अपने इतिहास लिखने की चाहत का उल्लेख किया तो प्रसिद्ध इतिहासकार मृदुला मुखर्जी ने देश में शहरों के नाम बदले जाने को इतिहास बदलने जैसा निरुपित किया। वे भारतीय इतिहास कांग्रेस के उद्घाटन सत्र की जानकारी मीडिया को दे रही थीं। उन्होंने कहा कि आज यह बड़ा सवाल है कि शहरों के नाम बदले जा रहे हैं। वास्तव में हम जहां रहते हैं वह जगह हमारी पहचान व सम्मान से जुड़ी होती है। जिस गली का जो नाम है और जिस सड़क का जो नाम है वह इतिहास का हिस्सा होता है, यदि उस इतिहास को बदला जायेगा तो इसका अर्थ है कि हम जनता के इतिहास को बदल रहे हैं। मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी ने इस बात पर जोर दिया कि भूतकाल और वर्तमान के बीच ये इतिहास कांग्रेस एक सेतु का काम करेगी, खासकर ऐसे वक्त में जब धार्मिक आधार पर इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। पटवारी ने एक विचार को थोपने के खतरे की ओर इंगित करते हुए इस बात पर जोर दिया कि ऐसी प्रवृत्ति से हमेशा ही लोकतंत्र की प्रक्रिया बाधित होती है।

जाने-माने साहित्यकार और आलोचक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने गांधी के विचारों के संदर्भों को नये सिरे से परिभाषित करने पर जोर दिया, जहां विकसित और उदात्त विचारों को किसी वैचारिक व भौगोलिक खांचे में बांटने से बचने की बात की गयी जिसका गांधीजी खुद पुरजोर विरोध करते रहे थे। इतिहासकार प्रो. मृदुला मुखर्जी ने गांधी और अहिंसा के सिद्धान्तों को प्रासंगिकता की कसौटी पर कसते हुए स्पष्ट किया कि गांधीजी के लिए अहिंसा आंदोलन का कोई तरीका नहीं था बल्कि उनके लिए अहिंसा एक बुनियादी सिद्धान्त था। गांधी को आज इसलिए भी सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरुरत है क्योंकि आज राष्ट्रवाद और हिंसा का घालमेल कर दिया गया है। उनका इशारा मॉब लिचिंग की बढ़ती हुई घटनाओं की ओर था।

और यह भी

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भोपाल में आयोजित 79वीं भारतीय इतिहास कांग्रेस का महत्व इस मायने में भी बढ़ जाता है कि उसके उद्घाटन सत्र में जो बातें खासकर उभर कर सामने आयीं उसका मूल केंद्रीय स्वर यही था कि आज इतिहास की समझ और उसे तथ्यों से परे किसी खास विचारधारा के दायरे में परिभाषित करने की कोशिश हो रही है जो कि भारतीय लोकतांत्रिक परम्परा की विरोधाभासी है। यही कारण रहा कि मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी ने साफ शब्दों में कहा कि हम मिथक आधारित इतिहास नहीं तथ्यों के आधार पर इतिहास को प्राथमिकता देंगे। उनका यह कथन इतिहास कांग्रेस के आयोजकों के मन में इस बात की आश्‍वस्ति पैदा करना है कि इतिहास को सही परिपे्रक्ष्य में देखने के लिए वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा दिया जायेगा। इसी संदर्भ में मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव सुधिरंजन मोहंती का यह कथन इतिहास कांग्रेस की प्रासंगिकता को बढ़ाता है कि इसके 78 सालों के इतिहास में इस वार्षिक आयोजन ने समाज की नब्ज पर बखूबी हाथ रखा है जो देश के सतत विकास के लिए बेहद जरुरी है।

 

सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।