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मध्य प्रदेश चुनावों में वक्त होगा बदलाव का या रहेगा ठहराव का ?- अरुण पटेल

अरूण पटेल

मध्यप्रदेश में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की अगुवाई में वक्त है बदलाव का के नारे पर विधानसभा चुनाव लड़ रही है तो वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे के साथ समृद्ध मध्यप्रदेश बनाने, विकास की गति को तेज करने तथा सामाजिक सरोकारों से जुड़ी योजनाओं के सहारे निरंतरता बनी रहे इसलिए भाजपा चौथी बार सरकार बनाने के लिए जनता का एक बार और भरोसा चाह रही है। भाजपा अतीत के एक दशक के दिग्विजय सिंह के कार्यकाल की भयावह तस्वीर पेश करते हुए मिस्टर बंटाढार की छवि पूरी ताकत से मतदाताओं के मानस पर अंकित करने की कोशिश करेगी। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस “मामा तो गयो और मुझे गुस्सा आता है“ के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों व तबकों में सरकार के प्रति असंतोष उभारकर डेढ़ दशक बाद सत्ता में आने के सुनहरे सपने देख रही है। विधानसभा चुनाव नतीजों से यह बात साबित होगी कि आने वाला वक्त होगा बदलाव का या रहेगा ठहराव का? यदि कांग्रेस पर मतदाता यकीन कर लेता है तो प्रदेश में बदलाव का वक्त होगा अन्यथा ठहराव का वक्त रहेगा। ठहराव का मतलब विकास के पहिये ठहरने से नहीं बल्कि शिवराज के नेतृत्व के ठहराव से है यानी उन्हें एक पारी और खेलने का मौका मिल जायेगा। सत्ता साकेत में विचरण का अवसर किसे मिलेगा यह बसपा सुप्रीमो मायावती की पार्टी किसके कितने वोटों में सेंध लगाती है और दोनों ही पार्टियों के असंतुष्ट अंतत: क्या गुल खिलाते हैं, इस पर निर्भर करेगा।

कांग्रेस के प्रचार की थीम भाजपा की संभावनाओं को प्रभावित कर रही है इसका अंदाजा इसी से लग रहा है कि चुनाव आयोग में जाकर भाजपा ने कांग्रेस के दो विज्ञापनों “मामा तो गयो और मुझे गुस्सा आता है“ पर आपत्ति दर्ज कराई। संयुक्त मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी की मीडिया सर्टिफिकेशन एवं मानीटरिंग कमेटी ने कांग्रेस एवं भाजपा दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद इस विज्ञापन को जारी करने की अनुमति दे दी। कमेटी ने तर्क दिया कि दोनों विज्ञापनों में किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया गया है, यह पार्टी का प्रचार विज्ञापन है। कांग्रेस ने मामा तो गयो विज्ञापन के लिए सर्टिफिकेशन हेतु आवेदन किया था और संयुक्त निर्वाचन पदाधिकारी की एमसीएमसी कमेटी ने उक्त विज्ञापन को जारी करने की अनुमति नहीं दी थी। दूसरी ओर उक्त कमेटी ने मुझे गुस्सा आता है के प्रसारण को अनुमति देने के बावजूद भाजपा की आपत्ति के बाद रोक लगा दी। दोनों विज्ञापनों के संबंध में कांग्रेस ने मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के यहां अपील की थी और वहां से उसे हरी झंडी मिल गयी। भाजपा ने आयोग में अपील की थी कि कांग्रेस के विज्ञापन में गुस्से वाली किसान संबंधी रील के कारण लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है, लोग प्रशासन के विरुद्ध हिंसक और बगावती हो सकते हैं, प्रशासनिक अक्षमता को भी यह वीडियो जाहिर करता है, इसलिए इसे रोका जाए। इस कानूनी लड़ाई में भाजपा को सफलता नहीं मिल पाई।

मध्यप्रदेश का चुनावी परिदृश्य जितना धुंधला और उलझा हुआ 2018 में नजर आ रहा है इतना इसके पहले कभी नजर नहीं आया। छोटे दलों के दलदल ने इसे उलझाकर रख दिया है। कांग्रेस, सपा, बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी में आपसी तालमेल न होने और सबके ताल ठोंक कर मैदान में उतरने से तथा अन्य दलों के भी चुनाव लड़ने के लिए कमर कसने के बाद फिलहाल यह निश्‍चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ऊंट किस करवट बैठेगा। फिलहाल दलों के दलदल ने भाजपा और कांग्रेस के लिए अग्नि परीक्षा जैसे हालात पैदा कर दिए हैं। दोनों दलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि 1972 से मध्यप्रदेश में जो दो दलीय ध्रुवीकरण चला आ रहा है उसकी जगह किसी तीसरी शक्ति का ऐसा अभ्युदय हो सकता है जिससे चलते उसके हाथ में सत्ता की चाबी आ जाए। अभी तक तो बहुजन समाज पार्टी या समाजवादी या गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने जितने प्रयास किए हैं उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली है। अनारक्षित वर्ग के हितों के लिए गठित सपाक्स भी चुनाव मैदान में कूद पड़ी है और फिलहाल वह भी सभी 230 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ने का दावा कर रही है। शिवसेना ने 230 सीटों पर लड़ने की घोषणा की है। आम आदमी पार्टी भी 230 विधानसभा क्षेत्रों में पूरी गंभीरता से चुनाव लड़ रही है और उसने मतदान बूथ तक अपना संगठनात्मक ढांचा खड़ा कर लिया है। ऐसे हालातों में भाजपा प्रदेश में चौथी बार सत्ताशीर्ष पर काबिज होने में सफल रहेगी या डेढ़ दशक बाद कांग्रेस का राजनीतिक वनवास समाप्त होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि दलों का दलदल किसके परम्परागत मतों में सेंध लगाकर दूसरे की सत्ता की राह को आसान बनायेगा। यदि प्रदेश के मतदाता कांग्रेस और भाजपा के ध्रुवीकरण से इतर किसी अन्य विकल्प की तलाश में जाते हैं और मौजूदा राजनीतिक ढर्रे में आमूलचूल परिवर्तन चाहते हैं तो फिर उनका झुकाव आम आदमी पार्टी की तरफ हो सकता है क्योंकि यह एक ऐसा विकल्प है जो परम्परागत राजनीतिक दलों से इतर प्रशासनिक मॉडल का वाहक बन सकता है।

जहां तक महागठबंधन न बनने से कांग्रेस की चुनावी संभावनाएं प्रभावित होने का सवाल है उस पर निश्‍चित तौर पर कुछ न कुछ असर पड़ेगा, क्योंकि बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी उन्हीं अंचलों में कांग्रेस के हारने का सबब बनती आई हैं जो उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे हुए हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी विंध्य क्षेत्र और महाकौशल अंचल में कांग्रेस के परम्परागत वोट बैंक में सेंध लगा सकती है। जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है मध्यप्रदेश में धीरे-धीरे इसकी राजनीतिक ताकत में कुछ कमी आ रही है लेकिन वह लगभग दो दर्जन सीटों पर ऐसी स्थिति में है जहां चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकती है। वैसे यदि पुराने राजनीतिक परिदृश्य को देखा जाए तो बसपा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाती रही है लेकिन अनायास सपाक्स के अभ्युदय के बाद जो परिस्थितियां बदली हैं उसमें हो सकता है कांग्रेस के साथ तालमेल न हो पाना कांग्रेस को कम नुकसान पहुंचाने वाला और फायदा अधिक पहुंचाने वाला हो। यदि कांग्रेस मायावती से गठबंधन कर लेती तो हो सकता है कि सवर्ण मतदाता उससे कुछ कन्नी काट लेते। इस प्रकार कांग्रेस ने भी बसपा के सामने आत्मसमर्पण की मुद्रा में समझौता करना इसलिए उचित न समझा हो कि इसमें उसे नफा कम और नुकसान ज्यादा नजर आया हो।

सवर्ण समाज के मतदाताओं को परम्परागत ढंग से भाजपा का मजबूत वोट बैंक माना जाता रहा है तो इसमें कुछ निश्‍चित प्रतिशत कांग्रेस मतदाताओं का भी है। भाजपा को भरोसा है कि वह अपने ब्राह्मण व ठाकुर नेताओं को आगे कर सपाक्स के उभार को न्यूनतम कर देगी और उसका परम्परागत वोट बैंक अधिक टस से मस नहीं होगा। जबकि कांग्रेस को भरोसा है कि सपाक्स के आंदोलन से जो मतदाता नाराज है उसका वोट कांग्रेस की झोली में ही गिरेगा क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है। सपाक्स के आंदोलन के प्रभाव को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस ने चुनाव मैदान में बड़ी संख्या में ब्राह्मण व ठाकुरों को उम्मीदवार बनाया है। अब यह तो चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा कि प्रदेश का मतदाता एक बार और शिवराज को मौका देता है या फिर इससे इतर कांग्रेस के वनवास को समाप्त कर बदलाव का वक्त लाता है।

और यह भी

दलबदल का एक दिलचस्प नजारा नरसिंहपुर के तेंदूखेड़ा क्षेत्र में देखने को मिलेगा जहां अपने-अपने राजनीतिक दल को छोड़कर दूसरे दल में जाने वाले दो प्रमुख उम्मीदवारों के बीच चुनावी मुकाबला होगा। भाजपा के तेंदूखेड़ा के विधायक संजय शर्मा ने भाजपा की सूची घोषित होने के पहले ही राहुल गांधी की मौजूदगी में इंदौर में कांग्रेस का हाथ थाम लिया और उन्हें पंजा चुनाव चिन्ह भी मिल गया। इसके बाद तेजी से घटे एक घटनाक्रम में कांग्रेस टिकिट के दावेदार मुलायमसिंह कौरव ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली जबकि उनकी चाहत कांग्रेस के पंजे पर चुनाव लड़ने की थी। अब भाजपा ने उन्हें उम्मीदवार घोषित कर कमल चुनाव चिन्ह उनके हाथ में थमा दिया है। कांग्रेस की टिकिट मांगने वाले भाजपा के चुनाव चिन्ह पर ल़ड़ेंगे और भाजपा से दो बार विधायक रहे संजय शर्मा हाथ के पंजे में कमल को दबोचते नजर आयेंगे। आंगन बदल-बदल कर विधायिकी की चाहत रखने वाले दोनों उम्मीदवारों में से किसकी लाटरी खुलती है यह फैसला अंतत: मतदाता करेंगे। उनके सामने दल चुनने की आजादी थी तो उन्होंने दल चुन लिया अब विधायक चुनने का अधिकार मतदाताओं के पास है और उसका फैसला ही चुनाव में अंतिम होता है। जीजा शिवराज का साथ छोड़ कांग्रेस में आने वाले संजय सिंह को वारासिवनी सीट से टिकिट मिल गयी है। भाजपा से विधायिकी की चाहत पूरी न होने के बाद जीजा की पार्टी छोड़कर पंजे के सहारे संजय सिंह की विधायिकी की हसरत पूरी होती है या नहीं यह वहां के मतदाता तय करेंगे।

 

सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।