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‘आसाराम उर्फ असुमल’ की सजा से उभरे सवालों की पड़ताल – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार करने के जुर्म में आसाराम उर्फ असुमल था उमल हरपलानी, उम्र 78 साल निवासी अहमदाबाद को आजीवन कारावास की सजा मिलने के बाद संत परम्परा के इंद्रजाल की काली गुफाओं को खंगालने का वक्त भी आ गया है।भारत में संत-साम्राज्य के विस्तार की गति चौंकाने वाली है। संत-महंत और बाबाओं के वैभवशाली आर्थिक साम्राज्य की थाह पाना कठिन है, फिर भी अध्यात्म और धर्म की इस काली दुनिया की पड़ताल जरूरी है। संघर्षों की दुनिया में हर दिन अकेले होते जा रहे व्यक्ति की कुंठा, कलह और क्लेशों को निचोड़ने की इस तिजारत का आकार भयावह है। आध्यात्मिकता और धार्मिकता के नाम पर संतों की दुरभिसंधि के प्रभाव को आंकने, समझने और तोड़ने के लिए विशेष उपाय करना होंगे।

   संत समाज की अर्थ व्यवस्था अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपतियों के आर्थिक साम्राज्य के समानान्तर उतनी ही ताकतवर है। इस नेटवर्क में काले धन का लेन देन करने वाले उद्योगपति, व्यापारी, अधिकारी और अपराध जगत के रहनुमा तक शरीक हैं। सब मिलकर अबोध गरीब भक्तों, साधकों के चढ़ावे का इस्तेमाल करते हैं। खुद संत आसाराम बापू की सम्पत्ति का आकंलन हजारों करोड़ रुपयों में किया गया है। आसाराम की जड़ें पाकिस्तान के सिंध प्रांत से जुड़ी हैं। भारत-पाकिस्तान विभाजन के वक्त आसाराम का परिवार सिंध छोड़कर अहमदाबाद में बस गया था। उसके पिता लकड़ी और कोयले का व्यवसाय करते थे।

मुकदमा दर्ज होने के बाद आसाराम के कुत्सित संसार का खुलासा चौंकाता है।उसके भक्तों की संख्या 4 करोड़ बताई जाती है। गुजरात के 10 जिलों में 45 स्थानों पर उसके पास जमीनें हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में 33 जगहों पर आसाराम के आश्रमों की जमीनें थीं। आसाराम और उसके बेटे नारायण साईं के पास 2500 करोड़ मूल्य की ऐसी सम्पत्ति है, जो रिकॉर्ड में नहीं है। उसके आश्रमों के पास बैंक खातों और अन्य निवेश के रूप में 10 हजार करोड़ की दौलत जमा है।

आसाराम की सजा ने संतों की काली कथा के कई पन्नों को ताजा कर दिया है। हरियाणा में गिरफ्तार गुरमीत सिंह की बादशाहत के किस्से तो किंवदंतियों की तरह चलते हैं। पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल में चंद्रास्वामी के भक्तिकाल को भी लोग भूले नहीं हैं। हथियारों की अंतर्राष्ट्रीय तस्करों से उसके सीधे संबंधों ने राजनीति में काफी विवाद पैदा किए थे। उस पर राजीव गांधी की हत्या में शरीक होने का आरोप भी था। दिल्ली और हरियाणा में इस केटेगरी के संतों और बाबाओं की बहार से यह अंदेशा पुष्ट होता है कि सत्ता के गलियारों की आबोहवा भी इनके लालन-पालन में सहायक रहती है। हरियाणा के सिंचाई विभाग में सब इंजीनियर से बाबा का चोला पहनने वाले कथित संत रामपाल के सतपाल आश्रम के कारनामों की चपेट में आने वाले भक्तों की संख्या भी कम नहीं है। सतपाल के आश्रम में तो गर्भपात सेंटर चलता था। दिल्ली के लाजपत नगर में देह-व्यापार चलाने वाले इच्छाधारी संत के स्वामी भीमानंद भी आसाराम की संत बिरादरी का प्रमुख पात्र माना जा सकता है।

भारत में संतों की महिमा को अगाध श्रद्धा के साथ बखाना गया है। कबीर ने कहा है कि- ’कबीर, संगत साधु की, कभी न निष्फल होय, ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय।’ अर्थात ’संत की संगत कभी निष्फल नहीं होती है।’ ’मलयगिरी की सुगंधी उड़कर लगने से नीम भी चंदन हो जाता है, फिर उसे कोई नीम नहीं कहता है।’ तुलसीदास कहते हैं कि- ’बिनु सत्संग बिबेक न होई’ याने सत्संग के बिना विवेक हासिल नहीं होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों के जरिए धार्मिक संस्कारों का हस्तक्षेप हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा है। ईश्‍वरीय शक्तियों की अनबुझी अंतहीन तलाश हमारे आध्यात्मिक सरोकारों की नियति है। भारतीय समाज के इस मनोविज्ञान का चौतरफा दोहन मौजूदा दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है। विडम्बना यह है कि मौजूदा राजनीति समाज को हंकाल कर संतों की काली दुनिया की ओर ढकेल रही है। आसाराम के भक्तों की सूची में देश के प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा-कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं के नाम दर्ज हैं। इन संतों के नाम पर स्मारक बने हैं। सड़कों और चौराहों के नाम भी सरकारों ने रखे हैं। सरकार के विभिन्न सम्मानों और सुविधाओं की भूखी यह बिरादरी वह सब काम करती है, जो संत-परम्परा में निषेध है।

   पिछले दिनों जितने संतों की काली करतूतों का खुलासा हुआ है, उनमें हमारे राजनेताओं की सहभागिता लजाने वाली है। क्या सरकार इस बात की पड़ताल करेगी कि आसाराम की इतनी अटूट सम्पदा की अपराध-कथा क्या है? उसके इस गोरख धंधे को ठगी का धंधा मानकर क्या उस सम्पत्ति को राजसात करने की पहल नहीं होना चाहिए?

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 26 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।