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मोदी-सरकार अविश्वास प्रस्ताव से क्यों मुंह चुरा रही है…? – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

लोकसभा में बजट सत्र के बीते 21 दिनों की घटनाएं स्पष्ट तौर पर यह बयां करती हैं कि मोदी-सरकार विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने के लिए तैयार नहीं है। मोदी-सरकार के खिलाफ 16 मार्च को पेश अविश्वास प्रस्ताव बीस दिनों से अधर में लटका है। नियम-प्रक्रियाओं के झीने आवरण में अविश्वास-प्रस्ताव को टालने की सरकारी कोशिशों ने संसदीय कार्यवाही को राजनीतिक-नौटंकी में तब्दील कर दिया है। विडम्बना यह है कि इस मर्तबा मोदी-सरकार के रक्षा-कवच के रूप में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन काम कर रही हैं। सत्तारूढ़ दल के बचाव में विपक्ष और संसदीय मर्यादाओं की ऐसी अवहेलना के उदाहरण लोकतंत्र में बिरले ही मिलते हैं। स्पीकर के रूप में सुमित्रा महाजन की यह भूमिका संसदीय परम्पराओं की नजीरों में गौरवान्वित करने वाली तो कतई नहीं है। संसदीय गतिरोध दूर करने के लिहाज से कांग्रेस समेत 17 विपक्षी दलों के नेता लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू से मिले थे।

विपक्षी नेता चाहते थे कि स्पीकर चाहें तो सत्र की अवधि बढ़ाकर कामकाज निपटा सकती हैं। विपक्ष की पहल के जवाब में स्पीकर ने गुरुवार को भी दो-चार मिनट में ही सदन को स्थगित करके यह जता दिया कि सरकार की मंशाएं कुछ अलग हैं। 6 अप्रैल को बजट-सत्र का आखिरी दिन है। यह संभावना न्यूनतम है कि सरकार सदन को आगे चलाने की कोई पहल करेगी।

संसद को सुचारू रूप से से चलाने की जिम्मेदारी सत्ता-पक्ष की होती है। विपक्ष को पर्याप्त संरक्षण देते हुए कार्रवाई का संचालन करना स्पीकर का दायित्व है। सरकार और स्पीकर ने इन दायित्वों को लगभग अनदेखा कर दिया है। यह इससे जाहिर है कि न तो स्पीकर को यह मलाल है कि सदन 21 दिनों से ठप्प है, ना ही मोदी-सरकार अपनी जवाबदेही महसूस कर रही है। अविश्वास प्रस्ताव की राहों में रुकावट पैदा करने के प्रायोजित प्रयासों की कलई खुलने लगी है। भाजपा संसद ठप्प करने की तोहमत कांग्रेस के माथे पर लगा रही है। वह असहिष्णुता के नाम पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करना चाहती है। कांग्रेस पर नैतिक दबाव बनाने की गरज से बीजेपी और सहयोगी दलों के सांसदों ने उन 23 दिनों का वेतन-भत्ता नहीं लेने की पहल की है, जिस दरम्यान संसद ठप्प रही। भाजपा का आरोप है कि कार्यवाही में व्यवधान पैदा करके कांग्रेस जन-धन की बर्बादी कर रही है। यह मोदी को मिले जनादेश का उल्लंघन है।

भाजपा के व्दारा सिर्फ कांग्रेस को ही हंगामे के लिए जिम्मेदार ठहराना पूरी तरह से तार्किक नहीं है। आंध्र को विशेष दर्जा देने के मामले में टीडीपी और वायएसआर के बीच हंगामे की प्रतिस्पर्धा हो रही है। एआईएडीएमके के सांसद कावेरी विवाद पर धरना दे रहे हैं। भाजपा और एआईएडीएमके के संबंध काफी अच्छे हैं, इसके बाजवदू भाजपा फ्लोर-मैनेजमेंट करके अपने मित्र दल को क्यों नही मना पा रही है? क्या भाजपा एआईएडीएमके के साथ मिलकर शोरशराबे को प्रायोजित कर रही है, जिसके बहाने सदन को आगे बढ़ाया जा रहा है?

रुकावट इस बात का सबूत है कि मोदी-सरकार ने लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण संस्था को हाशिए पर रख दिया है। प्रायोजित शोरशराबे के जरिए विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को रौंदना और रोकना घोर अप्रजातांत्रिक है। भाजपा इस तथ्य को झुठला नहीं सकती कि अविश्वास प्रस्ताव से उसे कोई नुकसान होने वाला नहीं है। सदन में जरूरी बहुमत 270 से भाजपा सांसदों की संख्या तीन ज्यादा है। सहयोगी दलों के सांसद इसके अतिरिक्त हैं। पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद भाजपा बहस से महज इसलिए कतरा रही है कि उसके पास विपक्ष के आरोपों का जवाब देने के लिए पर्याप्त राजनीतिक गोला-बारूद नहीं है। पीएनबी घोटाले में उसकी फजीहत सुनिश्चित है। दलित-अत्याचार, बेरोजगारी, एससी/एसटी कानून, सीबीएससी परीक्षाएं, पेट्रोल-डीजल के भाव और किसानों के सवालों का कोई ठोस उत्तर मोदी-सरकार के पास नहीं है।

भाजपा का यह नैतिक दबाव फिजूल है कि उसके सांसद संसद ठप्प होने के कारण वेतन-भत्ते नहीं लेंगे। विपक्ष भाजपा के इस नैतिक दबाव में नहीं आ रहा है। खुद भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी भाजपा के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं। वो वेतन लेंगे और भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने कहा है कि वेतन-भत्ते नहीं लेने के निर्णय के पहले शिवसेना से परामर्श नहीं किया गया है। सुब्रमण्यम स्वामी और शिवसेना के स्टैण्ड के बाद भाजपा की नैतिकता राजनीतिक प्रहसन बनकर रह गई है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 06अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।