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‘इंडिया-फर्स्ट’ पर भारी ‘ब्रेन ड्रेन’ और ‘वेल्थ ड्रेन’ का नया ट्रेण्ड – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

राष्ट्रवाद की उग्र तकरीरों से भारत की तकदीर लिखने को आतुर लोगों के लिए न्यू वर्ल्ड वेल्थ की यह रिपोर्ट घोर चिंता का विषय होना चाहिए कि हर साल अपना देश छोड़कर विदेशों में बसने वाले करोड़पति भारतीयों की संख्या निरन्तर तेजी से बढ़ रही है। प्रतिभा-पलायन या ‘ब्रेन-ड्रेन’ की लाइलाज बीमारी से परेशान मुल्क के सामने नव-धनाढ्य करोड़पतियों का यह पलायन कई सवाल खड़े कर रहा है। ‘ब्रेन ड्रेन’ के साथ ‘वेल्थ-ड्रेन’ का यह ट्रेण्ड देश के सामने नई चुनौती है। ‘ब्रेन’ के साथ ‘वेल्थ’ का बढ़ता रिसाव भारत के विकास की कल्पनाओं पर गहरा आघात है।

न्यू वर्ल्ड वेल्थ की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में करीब 7000 करोड़पति भारतीयों ने अपनी दुनिया की पहचान बदलते हुए विदेशों में नए ठिकाने ढूंढ लिए हैं। भारत से विदेश पलायन की यह दर 2016 की तुलना में 16 प्रतिशत ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ऊंची नेटवर्थ वाले सात हजार भारतीयों ने अपना स्थायी निवास किसी और देश को बना लिया है। चिंताजनक पहलू यह है कि यह संख्या लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2016 में 6000 करोड़पतियों ने विदेशी मुल्कों की राह पकड़ी थी, जबकि 2015 में यह आंकड़ा 4000 था। चीन के बाद मुल्क बदलने वाले देशों में भारत दूसरे नम्बर पर है। चीन के कम्युनिस्ट शासन की सख्तियों के मद्देनजर सबसे ज्यादा करोड़पतियों का देश से मुंह मोड़ लेना एक बार समझ में आता है, लेकिन भारत में इस विषय पर सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श और शोध होना चाहिए कि अपने धर्म, संस्कृति और सामाजिक रिश्तों से गहरे जुड़े भारतीय देश छोड़ने की ओर क्यों मुखातिब हो रहे हैं? मानव संसाधन विकास मंत्रालय और एसोचैम जैसे संस्थान इस गंभीर समस्या को लेकर चिंतित हैं कि इसे कैसे रोका जाए? संयुक्त राष्ट्र की ‘द इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन’ की रिपोर्ट के अनुसार देश के 48 लाख वयस्क दूसरे देशों में बसने की योजना बना रहे हैं या इसकी तैयारी कर चुके हैं।याने आने वाले दिनो में ‘ब्रेन ड्रेन’ के साथ ‘वेल्थ ड्रेन’ की यह प्रक्रिया भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरने वाली है।

युवा पीढ़ी के ब्रेन-ड्रेन के पीछे तर्क यह था कि भारत में अवसरों की कमी की वजह से उन्हें दूसरे मुल्कों की राह पकड़ना पड़ती है, लेकिन मुल्क में लाखों करोड़ों की सम्पत्ति बनाने वाले रईसजादों के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी है कि उन्हें अपने ठिकाने बदलना पड़ रहे हैं? राष्ट्रवाद की उग्र कल्पनाओं के दौर में, जबकि हर कदम पर ‘इंडिया-फर्स्ट’ का आव्हान गूंजता है, विदेश-पलायन की प्रवृत्तियों के तकाजों को गहराई से जांचना-परखना होगा। 2015 के प्रारम्भिक दौर में जब देश में अहिष्णुता के मुद्दे पर कुहराम मचा था, तब फिल्म स्टार आमिर खान के इस कथन ने तूफान पैदा कर दिया था कि ‘उनकी पत्नी असहिष्णुता के नाम पर फैल रहे उन्माद और हिंसक घटनाओं से डरी हुई हैं। वह कह रही हैं कि क्या अपने को विदेश में बसने पर विचार करना चाहिए ?’ इस सवाल की पृष्ठभूमि जाने-समझे बिना राष्ट्रवाद के नाम पर उनकी छीछालेदर के किस्से किसी से छिपे नहीं हैं। आमिर खान ने तो एक भयभीत मां के मनोविज्ञान को उकेरना चाहा था, जिसकी कीमत उन्हें चुकाना पड़ी, लेकिन इन सात हजार करोड़पतियों के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि वो अपना देश छोड़कर विदेशों में बस रहे हैं। जबकि, भारत में करोड़पतियों की जिंदगी के ‘मखमली’ अंदाज निराले हैं। अंधेरे सायों से दूर रेशम के नरम, नाजुक और महीन रेशों से बुनी उनकी जिंदगी की कसीदाकारी आम भारतीयों को नसीब नहीं है। भारत में अर्जित पैसे को समेटकर विदेश में बसने का यह उपक्रम किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए ?

इन दिनों भारत में राष्ट्रवाद पर बहुत जोर दिया जा रहा है। राष्ट्रवाद का कठोर सच यही है कि देश में राष्ट्रवाद का सारा बोझ गरीबों के कंधे पर है। गरीब ही राष्ट्रवाद के झंडे उठाता है, नारे लगाता है, अमीरों की तिजोरियां भरता है। पेटीएम, अमेजन जैसे कार्पोरेट घराने तो भारतीयों से पैसा कमाकर अपने मुल्कों को भेज ही रहे हैं। विडम्बना यह है कि भारत के गरीबों की बदौलत अमीरी हासिल करने वाले भारतीय अमीरजादे भी विदेश चल देते हैं। भारत में अपनी मातृभूमि को स्वेर्ग का दर्जा दिया गया है। ‘जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी’ की अवधारणा महज एक शूक्ति नहीं, बल्कि इसे हमारे जहन में संस्कारों की तरह रोपा जाता है। इन संस्कारों को पुख्ता करने के उपाय ढूंढना होगें।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 06 फरवरी के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।