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ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गाँधी-राकेश पान्डेय

(गांधी जयन्ती पर विशेष)

मादरे हिन्द की आंख का तारा गांधी।
चर्ख पर कौम के पुर नूर सितारा गांधी।।
जेलखाने में भी जाकर के उठाना कूड़ा।
मुल्क के वास्ते करते  हैं गवारा गांधी ।।
(स्वराज संग्राम का बिगुल, प्रतिबंधित दिनांक 25 अगस्त, 1930)

राकेश पाण्डेय

आज देश की आजादी के 70 वर्ष बाद भी सरकार देश में स्वच्छता का एक अभियान चला रही है, किंतु उपरोक्त पंक्तिया गांधी जी के स्वच्छता के प्रति प्रण को 1930 में ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त पुस्तिका में प्रकाशित रचना रेखांकित करती है।
हम देश की आजादी में गांधी जी के योगदान को लेकर अनेक पहलुओं पर चर्चा करते रहते है किंतु अंग्रेजो द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी जी के उल्लेख की चर्चा पर्याप्त नहीं हुई है। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गाँधी  भारत के स्वाधीनता संग्राम में गाँधी जी की जनमानस में व्याप्ति का जीवंत प्रमाण है। देश के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक देशभक्तो ने अपने-अपने तरीके से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपनी भूमिका का निर्वाह किया था। उन रचनाकारों, प्रकाशकों के साथ-साथ अनेक  गुमनाम शब्द साधकों  के तप को  रेखांकित करना हमारा दायित्व भी है, जिन्होंने गाँधी जी से मिले बिना, उनके द्वारा प्रतिपादित सूत्रो, जैसे कि अहिंसा, सत्याग्रह, स्वराज, नमक सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, खादी , चर्खा  आदि को आजादी की लड़ाई में जन -जन तक पहुँचाने का प्रयास किया। ये सभी लोग गांधी जी से इतने प्रभावित थे कि उनके प्रयासों से पूरा देश गांधीमय हो उठा, घर-घर में गांधी जी के विचार आजादी का     मंत्र बन गए। इन सभी के योगदान को भी आज याद करना आज इसलिए भी आवश्यक है कि आने वाली पीढियां भी  उनसे प्रेरणा लेंगी कि देश की आजादी के नायक गांधी जी किस प्रकार जन-मन में रचे-बसे थे।
आप कल्पना करिये कि उस समय संचार के साधन नाम मात्र के थे किंतु देश भर में गांधी जी के भाषणों का प्रभाव व्याप्त था। लोग विचार के साथ-साथ व्यवहार में भी गांधीमय हो उठे थे। उनकी वेशभूषा व खानपान भी गांधीमय हो उठा था, वे सभी विदेशी वस्त्रें का त्याग कर खादी वस्त्र धारण करते, साथ ही मांस को त्याग कर शाकाहारी बन गए थे। इस वातावरण को निर्मित करने में इस प्रतिबंधित लोक साहित्य का बड़ा हाथ था। लोगों के बीच इन छोटी-छोटी पुस्तिकाओं ने देश को अंग्रेजों  के विरुद्ध एकजुट हो कर खड़े होने में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। ये पुस्तिकाएं आम जनता द्वारा तैयार की जाती थीं, जिनमें लोक में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। इनमे मूल भावना गांधी जी के बताए रास्ते पर चलते हुए अंग्रेजों से लड़ना था। इनकी भाषा आज की हिंदी से भिन्न है, इसमें उर्दू अथवा फारसी के शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। अनेक रचनायें आज की भाषा के व्याकरण की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, क्योंकि तब की हिंदी में और आज की हिंदी में बदलाव आ गया है। दूसरे इनके रचनाकार अपनी बात को आम लोगो को संदेश के रूप में पंहुचाना चाहते थे, वे कई बार अंग्रेजों  द्वारा पकड़ भी लिए जाते थे, लेकिन छूटने पर फिर दूसरे नाम अथवा अज्ञात नाम से लिखने लग जाते। इन पुस्तिकाओं के प्रति आमजन की भावनाओं को भी रेखांकित  करना आवश्यक है, ये पुस्तिकाएं निःशुल्क वितरित नहीं होती थीं, इनके मूल्य रखे  जाते जिसे लोग खरीदते थे। फिर उस पैसे से और पुस्तिकाएं प्रकाशित होती थी। उनके कई-कई संस्करण निकले हुए हैं। इस कार्य में कई पुस्तिकाएं तो हस्तलिखित और उनके भी संस्करण निकले हुए है। कई पुस्तिकाओं के लेखक  नहीं हैं, केवल प्रकाशकों ने संकलित कर के प्रसारित कर दिया और साथ में अपना पता भी दे दिया कि ये पुस्तिकाएं उनके यहां से प्राप्त करें। कुछ प्रकाशकों ने पूरा सूचीपत्र भी इन पुस्तिकाओं के साथ प्रकाशित किया कि उनके पास इस प्रकार की कई पुस्तिकाएं है। साथ में ये कुछ लोगों  के लिए व्यवसाय भी बन गया था। वे चाहते थे कि उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तिका की कोई नकल न करे। इसलिए उस पर संदेश भी लिखते  थे।
आजादी से पूर्व रचा गया यह अद्भुत लोक साहित्य है, जो अनेक लोक विधाओं में है। इनमें गांधी जी को लेकर कई लोकगीत, आल्हा, कजरी, दादरा, अहिरवा, ग़ज़ल, भजन आदि रचे गए। अनेक शब्द गांधी जी के पर्याय बन चुके हैं जैसे कि चर्खा।
अब चर्खा पर कविता के अंश देखिए:-

चर्खा से स्वराज
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हमें ये स्वराज्य दिलाएगा चर्खा
खिलाफत का झगड़ा मिटाएगा चर्खा
हमको घूँ घूँ की धुर्पद सुनाएगा चर्खा
मेरे हौसले सब बढ़ाएगा चर्खा
(गांधी जी का चर्खा, प्रतिबंधित दिनांक : 30 मार्च , 1930)

आजादी की लड़ाई में गांधीजी द्वारा अहिंसा का सूत्र दिये जाने से निर्बल लोगों में भी अंग्रेजों से लड़ने की इच्छा प्रबल हो उठी थी, क्योंकि जो लोग हिंसात्मक आंदोलनों के लिये स्वयं को उपयुक्त नहीं पाते थे, वे भी गांधीजी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे, जिससे कि स्वाधीनता आंदोलन में अभूतपूर्व संख्या बल की वृद्धि हुई। कवि ने भारतीय संस्कृति में सभी देवताओं को सबल लड़ते हुए रहने की बात कही किन्तु शांति के साथ लड़ने का विचार गांधीजी के साथ आरम्भ हुआ।

वन्देमातरम् गांधी गौरव 
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राम बलराम कृष्ण पारथ परशु भीम,
जावत बदि ‘बली’ बेदहूँ पुरान में।
औरो शस्त्रधारी बड़े होत रहे किन्तु ,
गांधी प्रगटे ते शान्तिधारी भे जहान में
(वन्देमातरम गांधी गौरव, प्रतिबंधित दिनांक :9 दिसम्बर, 1931)
इस प्रकार गांधीजी का अंग्रजों से संघर्ष जन-जन में व्याप्त हो गया और जो लोग गुलामी को अपनी नियति मानते थे वे भी देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार हो गये। इस प्रकार के वातावरण का अंग्रेजों पर असर हुआ, साथ ही देश की जनता भी आजादी के प्रति आशान्वित हो उठी। अंग्रेजी हुकूमत पर इस दबाव को नीचे लिखी पंक्तियां इस तरह प्रकट करती हैं।

सरकार की जान के लाले हैं
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ऐ मादरे हिन्द न हो गमगीन दिन अच्छे आनेवाले हैं।
आजादी का पैगाम तुझे हम जल्द सुनाने वाले हैं।।
मां तुझ को जिन जल्लादों ने दी है तकलीफ जईफी में।
मायूस न हो मगरूरों को अब मजा चखाने वाले हैं।।
(स्वराज संग्राम का बिगुल, प्रतिबंधित। दिनांक: 25 अगस्त, 1930)

आजादी की लड़ाई में इन पुस्तिकाओं के रचनाकारों ने तमाम लोक विधाओं में गांधीजी के विचारों को प्रचारित किया। मुझे इस विषय पर कार्य करते हुए रामलीला में प्रचलित राधेश्याम रामायण की तर्ज पर भी कविता मिली, जिसकी कुछ पंक्तियां:-

राधेश्याम की रामायण के ढंग पर
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चलने दो हाथ निहत्थों पर,
जत्थों पर जत्थे आवेंगे।
गांधी के एक इशारे पर,
लाखों मत्थे चढ़ जावेंगे।।
(महात्मा जी की पुकार, प्रतिबंधित दिनाक:30 मार्च, 1931)

गांधी भारतीय लोकमानस में किसी देव समान हो चुके थे। उन पर अनेक प्रार्थनाएं भी रची जाने लगी। गांधीजी की लोक स्वीकारिता का आलम यह था कि किसी भी जाति-धर्म के लोग उनसे देश को आजाद कराने की प्रार्थना करते थे। इस प्रकार की कविता भी इस प्रतिबंधित साहित्य में प्राप्त हुई।

प्रार्थना
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गांधी हौं न तेरे गुनगान के सुयोग्य ‘बली’
कविता की राखौं हौं न नेकहूँ शकति है।
प्राप्त सतसंगहूँ न काहू देश-भक्तहूँ को,
नहीं राजनीतिहूँ में मेरी कछु गति है।।
(गांधी गौरव, प्रतिबंधित दिनाक : 9 दिसम्बर,1931)

अंग्रेजों से लड़ते हुए गांधीजी ने पाया कि अनेक भारतीय नशा करते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने अनेक सूत्र वाक्यों में शराबबंदी बात भी की है। जिसका असर संपूर्ण भारतीय जनमानस पर हुआ और इस लड़ाई में अनेक भारतीयों ने स्वयं को नशा मुक्त भी किया। अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में शराब के ऊपर भी बहुत ही रोचक पंक्तियां मिलती हैं।

शराब का बाई काट
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खाना खराब कर दिया बिलकुल शराब ने।
जो कुछ कि न देखा था दिखाया शराब ने।।
बुलबुल की तरह बाग में लेते थे बुए गुल।
सन्डास नालियों में गिराया शराब ने।
(महात्मा गांधी की आंधी, प्रतिबंधित दिनांक : 10 दिसम्बर, 1930)

घर-घर में आजादी की चिंगारी सुलगी हुई थी, अगर पुरुष घर से बाहर अपना योगदान दे रहे थे तो महिलाएं भी अपनी भूमिका का निर्वाह करने में कहीं पीछे नहीं थीं। स्त्रियां भी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को आत्मसात कर अपनी वस्त्रें और सौन्दर्य प्रसाधनों में भी स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को वरीयता देने के लिए तत्पर थीं। जिसका उल्लेख प्रतिबंधित साहित्य की अन्य कविताओं में स्पष्ट देखने को मिलता है। जैसेः-

महिला का स्वदेशी व्रत
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साड़ी ना पहनब विदेशी हो पिया देशी मंगा दे।
देशी चुनरिया, देशी ओढ़नियां, देशी लहंगवा सिला दे हो।।
पिया देशी मंगा दे ।। साड़ी—।।
देशी चोली, देशी गोली देशी ही रंग में रंगा दे हो।
पिया देशी मंगा दे ।। साड़ी—।।
(स्वराज गीतांजलि, प्रतिबंधित दिनांक : 21 दिसम्बर,1931)

इसी प्रकार कविता की अन्य विधाओं में और देखिये:-

स्त्रियों का पति से कहना
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(दोहा)
भारत की बहिने कहें,निज पिय से समझाय।
ऐ मेरे पति देवता, चर्खा देव मंगाय।।
(चौपाई)
चर्खा देव मंगाय तभी मन म्हारे चैन परैगो।
बिन इसके बालम सुन लीजै दिल खुश नाहिं रहैगो।
सारे भरत भर में प्यारे चर्खा धूम करैगो।
खद्दर के आगे सुन ली सब कपड़ा रोय मरैगो।
स्वदेशी और विदेशी कपड़ा में रण धूम मचैगो।
(स्वराज गीतांजलि, प्रतिबंधित दिनांक : 21 दिसम्बर,1931)

उपरोक्त तमाम रचनाओं में आपने पाया होगा कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी वस्तुओं  को अपनाने के लिए घर-घर में वातावरण बन गया था। यह गांधीजी की ही देन थी, उनके विचारों से प्रभावित होकर विश्व के तमाम देशों का सामान जो, भारत में आता था, उसका खुलेआम बहिष्कार होने लगा और इन प्रतिबंधित पुस्तिकाओं में उनकी गूंज भी मिलती है।

विदेशी चीजों का बहिष्कार
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टाई जापां की न इटली का रूमाल अच्छा है।
जो बने अपने वतन में वह माल अच्छा हैं ।।
मुझे मतलूब नहीं चीन का जर्री सागिर।
मेरे भारत का मुझे जामे सिफाल अच्छा है।।
(स्वराज गीतांजलि, प्रतिबंधित दिनांक : 21 दिसम्बर,1931)

गांधीवादी आंदोलनों में गांधी टोपी सदा चर्चा में रही। बड़े-बड़े आंदोलन गांधी टोपी पहन कर हुये। देश की आजादी के मतवालों की पोशाक में गांधी टोपी मुख्य अंग थी। इस पर कुछ पंक्तियां देखिये:-

इन गांधी टोपी वालो ने
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इक लहर मचा दी भारत में इन गांधी टोपीवालों ने।
‘स्वाधीन बनो’ यह सिखा दिया इन गांधी टोपीवालों ने।।
सदियों की गुलामी में फंसकर, अपने को भी जो भूले थे।
कर दिया सचेत उन्हें अब तो, इन गांधी टोपीवालों ने।।
(सत्याग्रह की आवाज, प्रतिबंधित दिनांक : 10 दिसम्बर, 1930)

वीर रस के रचनाकारों ने भी अपनी कलम से गांधीजी के अहिंसात्मक संघर्ष को भी वीर रस काव्य शैली ‘आल्हा’ में भी अनेक रचनाएं की। उसमें ‘नमक सत्याग्रह आल्हा’, ‘स्वराज आल्हा’, ‘सत्याग्रह आल्हा’ आदि प्रमुख है। इसमें से आप ‘सत्याग्रह आल्हा’ की कुछ पंक्तियां देखिए:-

सत्याग्रह आल्हा
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गाँधी जी ने लिखा मित्र वर बृटिश हुकूमत भारी पाप।
दलिद्र इसने बनाया भारत दुख से जनता करै विलाप।।
नाश हाथ की भई कताई स्वास्थ हरन अबकारी कीन।
भारी बोझ नमक के कर का दबी है जासे जनता दीन।।
(सत्याग्रह आल्हा, प्रतिबंधित सन 1930)
हमारे अनेक त्योहारों पर भी स्वाधीनता आंदोलन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। होली में अनेक प्रकार से गांधीजी का जिक्र देखने को मिलता है।

स्वदेसी होली-
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ठनेगी सत्याग्रह की ठान।
गोरी शाही से ना मिलहै तुमको एक छदाम।
हमने तुमको बतला दीन्हा सच्चा यह अनुमान ।।
कौरव पांडव दोऊ दल में मालवि बिदुर समान।
दुर्योधन सम गवर्नमेन्ट से अविश होय अपमान ।।
(महात्मा गांधी की स्वदेशी होली, प्रतिबंधित दिनाक :अज्ञात)

इसी क्रम में देवनागरी लिपि में एक पंजाबी रचना भी मिली जोकि चरखे पर केन्द्रित है।

ये ना समझो चरखा मेरा कहन्दा घूं घूं घूं।
ये तो याद करेगा हेगा गांधी तूं तूं तूं।।
एक दिन सुपना मैनू आया।
सुपने दे बिच यह फरमाया।।
मोमिन बिच चरखे दे तार में अल्ला हूं हूं हूं।।
(गांधी संग्राम, प्रतिबंधित दिनांक : 9 दिसम्बर,1941)
ये रचनाकार तत्कालीन अंग्रेजो की मानसिक स्थिति का भी आंकलन करते रहते थे । उनको लगा कि ब्रिटिश सरकार के लोग गांधी जी से परेशान है तो उन्होंने निम्न पंक्तिया रची-

लन्दन की पुकार
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सारा लन्दन नगर बस यही कहा रहा गांधी बाबा कहां से ये पैदा हुआ।
दिया कालों को दुश्मन हमारा बना हाथ खद्दर प्रचारक यह पैदा हुआ।
भारी भारी मशीनें हैं खाली पड़ीं। क्योंकि भारत तो चर्खे पे शैदा हुआ।
देखने में तो गांधी है सीधा बड़ा पर यह जालिम हमारा है पैदा हुआ।
(राष्ट्रीय तरंग, प्रतिबंधित दिनांक :30 मार्च 1931)
इस प्रकार सारे भारतीय जनमानस में गांधी और सिर्फ गांधी व्याप्त थे। सबके मध्य एक ही संदेश था कि गांधीजी से अंग्रेजी हुकूमत डरती है। इस पर रोचक ढ़़ंग से कविताएं लिखी गई है जिन्हें की बाद में अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया।

और अंत में ये पंक्तियां भी देखियेः-

विजय-दुन्दुभी
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देखो गांधी जी के मारे थर थर कांप रही सरकार।
धरे   रहे।  वाके  तोप – तमंचा  धरी रही तरवार ।।
(विजय-दुदुम्भी, प्रतिबंधित :10 दिसम्बर, 1930)

इस प्रकार ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित की गई रचनाओं की एक बानगी देने की कोशिश की है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधीजी की व्याप्ति का प्रभाव यह प्रेरित करता है कि संघर्षो से मिली आजादी को हम सहजता से न लें।  साहित्य की अनेक विधाएं इन रचनाओं में उल्लेखित है जिनका कि शास्त्रीय रूप से लोकगायन होना चाहिए। गत 11 अप्रैल 17 को ‘सत्याग्रह’ के शताब्दी वर्ष के संदर्भ में  राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रांगण में आयोजित कार्यक्रम में  प्रख्यात लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी जी ने मेरे प्रकाशनाधीन संकलन में से कुछ रचनाओं को जब प्रधानमंत्री जी के सामने प्रस्तुत किया तो वे भी झूमे बिना नहीं रह सके। यह साहित्य हमारी थाती है, इसको वन्दन है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री राकेश पाण्डेय जाने माने साहित्यकार एवं प्रतिष्ठित प्रवासी संसार पत्रिका के सम्पादक है।