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लोहिया की नेहरू और कांग्रेस की आलोचना में निजी बैर जैसा नही था कुछ – राज खन्ना

राज खन्ना

(जन्मदिन 23 मार्च पर विशेष)

डॉक्टर राम मनोहर लोहिया अपना जन्मदिन नही मनाते थे। उनके जन्मदिन 23 मार्च की तारीख़ अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत की तारीख है। अपने जन्मदिन पर इन शहीदों की याद उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण थी। 23 मार्च 1910 को जन्मे लोहिया जी को सिर्फ 57 साल की उम्र मिली। 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हुआ। 55 साल बीत गए। पर दूसरों के लिए जीने वाले हमेशा जिंदा रहते हैं। लोहिया भी जिंदा हैं। अपने विचारों के जरिये।

लोहिया देश के जनमानस पर गांधी, नेहरू और सुभाष बोस के प्रभाव को स्वीकार करते थे लेकिन उन्हें संदेह था कि वे कब तक पूजे जाएंगे ? वे कहते थे कि मेरी पीढ़ी के लिए गांधी जी कल्पना, जवाहर लाल कामना और नेताजी सुभाष कर्म के प्रतीक हैं। कल्पना हमेशा दृष्टा रहेगी। विस्तार में उसके कुछ दोष थे लेकिन उसकी कीर्ति, मैं समझता हूँ समय के साथ चमकेगी। कामना कडुवी हो गई है। कर्म अपूर्ण रहा। कल्पना, कामना और कर्म सिर्फ आपस में ही नहीं, पर इससे ज्यादा जनता पर उनका जो असर पड़ा, उसके बारे में भी वे एकमत नहीं थे। यह तथ्य उन सबके लिए जो उनके प्रभाव में रहे, दुःख का कारण होगा और इतिहासकारों के लिए शोक का।

लोहिया गांधीवादी थे। लेकिन खुद को कुजात गांधीवादी बताते थे। उन्होंने गांधीवादियों की तीन श्रेणी बांटी। पहली जो सत्ता साथ थे। पंडित नेहरु और राजेंद्र प्रसाद जैसे। दूसरे जो गांधी के नाम संस्थाएं चलाते थे। विनोवा जी जैसों को उसमे शामिल मानते थे। तीसरी श्रेणी में खुद को रखते थे। वह गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रबल अनुयायी थे। पर उन्होंने गांधीवाद को अधूरा दर्शन बताया। वह समाजवादी थे लेकिन मार्क्स दर्शन को एकांगी माना। गांधी को वह पूर्व तो मार्क्स को पश्चिम का प्रतीक मानते थे। वह पूर्व-पश्चिम की खाई पाटना चाहते थे। राष्ट्रवादी थे। लेकिन विश्व सरकार की कल्पना करते थे। उन्होंने पंडित नेहरू को उस दौर में चुनौती दी, जब वह लोकप्रियता के शिखर पर थे। पर लोहिया की नेहरू और कांग्रेस की आलोचना में निजी बैर जैसा कुछ नही था। वह मानते थे कि नेहरू और कांग्रेस रास्ते से भटके हुए हैं।

एक विचारक-चिंतक के रुप में लोहिया का कद बहुत बड़ा था। प्रतिभा-कर्मठता-तेजस्विता का अनूठा मेल। सप्त क्रांतियों का उनका आह्वान था। नर-नारी की समानता,चमड़ी के रंग से उपजी मानसिक-आर्थिक गुलामी खत्म करने , जाति प्रथा तोड़ने और पिछड़ों को अवसर देने,परदेसी गुलामी की खिलाफत, निजी पूंजी की असमानता को दूर करने और पैदावार बढ़ाने, निजी जीवन में हस्तक्षेप रोकने और अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ सत्याग्रह इनमें शामिल था। वे इन मोर्चों पर एक साथ संघर्ष के हिमायती थे। उनका संघर्ष बौद्धिक लफ्फाजी नही था। आजाद भारत में भी वह सड़क से सदन तक जूझते रहे। बार-बार जेल यात्राएं करते रहे। वह चरण-चिन्हों का अनुकरण करने वाले नही थे। धारा के साथ बहने वाले भी नही। लीक से हटकर चलने वाले। अलग राह बनाने वाले । विपरीत धारा में तैरकर पार पहुंचने वाले। गांधी के अनुयायी। पर भक्त नही। किसी को अपना भक्त बनाने की चाहत न रखने वाले भी। सवाल करने वाले। और सवालों का जबाब देने के लिए तैयार रहने वाले भी। वह तो मानते थे कि किसी नायक के निधन के पचास साल तक उसकी प्रतिमा न लगाई जाए, ताकि इस बीच लोग उसके काम का मूल्यांकन कर सके।

सिर्फ राजनीति नही। अर्थनीति। विदेश नीति। समाज-देश को बेचैन करने वाले हर सवाल पर लोहिया की साफ़ सोच थी। जाति प्रथा, महिलाओं की बदहाली, भाषा, हिन्द-पाक एका ,साम्प्रदायिकता, भारतीय संस्कृति और भारत के भविष्य जैसे तमाम विषयों पर लोहिया के विचार जाने के बाद भी याद किये जाते हैं। वह विद्रोही थे। परम्परा भंजक। गजब के साहसी। वही सावित्री की तुलना में द्रोपदी जैसी भारतीय नारी की बात कर सकते थे। द्रोपदी क्यों ? वह सवाल करती है। संघर्ष करती है। किसी से हार नही मानती। सावित्री को क्यों कमजोर माना ? नारी को गठरी के समान नही बनाना है। नारी इतनी शक्तिशाली होनी चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बना कर अपने साथ ले चले। उन्हें इस बात का रंज था कि लोगों ने सिर्फ इतना याद रखा कि द्रोपदी के पांच पति थे। उसके व्यक्तित्व की तमाम खूबियों को अनदेखा किया गया। यह आज के सड़े-गले हिंदुस्तान के दिमाग की पहचान है। इस तरह के सवाल पर दिमाग बहुत जल्दी चला जाता है कि किस औरत के कितने पति या प्रेमी हैं ? सावित्री इसलिए भाती है कि वह यम के हाथों से अपने पति को छुड़ा कर ले आयी। वे कहते थे कि कोई किस्सा ऐसा बताओ कि कोई पत्नीव्रत मर गई अपनी पत्नी को यम से छुड़ा लाया हो। ऐसा किस्सा नहीं है तो वजह यही है कि हिंदुस्तानी दिमाग में शरीर,मन, आत्मा से जुड़ी हुई पतिव्रता तो बसी हुई है लेकिन मर्द के दिमाग में पत्नी के लिए ऐसे ही भाव का स्थान नहीं है। उन्होंने लड़की की ऐसी शादी जिसमे माँ-बाप दहेज देकर कहें कि अच्छी शादी हुई , की तुलना में ऐसी लड़की को तरजीह दी जो दहेज दिए बिना दुनिया में आत्मसम्मान से चलती है।

हिंदी के सवाल पर वे दो टूक थे। उन्होंने कहा,” मध्यदेशियों में शिवाजी या सुभाष बोस जैसा बड़प्पन होता तो, तो अंग्रेजी हटाने और हिंदी चलाने के लिए समय सीमा की बात कभी सोची या स्वीकारी नहीं जाती। 1950 में 1965 की सीमा बांधना महान मूर्खता और महान क्षुद्रता थी। जो कोई उस समय के शक्तिशाली राजपुरुष थे, वे अच्छी तरह देख रहे थे कि अंग्रेजी का मामला सुधरेगा और हिंदी का बिगड़ेगा। कसम और संकल्प की लड़ाई थी। कसम खाते थे हिंदी के लिए और संकल्प रहता था अंग्रेजी चलाते रहने के लिए। ऐसी हालत में कसम खाली रस्मी और ऊपरी रह जाती है। सब काम कसम के उल्टा होता रहता है।’

झूठे और अधूरे इतिहास लेखन को लेकर लोहिया काफी मुखर थे। उनके अनुसार,’ इतिहास लेखन को लेकर भारत का दुर्भाग्य असाधारण है। पिछले एक हजार साल में भारत का इतिहास लेखन एक विचित्र प्रकार के अंतरराष्ट्रीय इतिहासकारों के हाथों में रहा है। फरिश्ता से विंसेंट स्मिथ तक इतिहास के इन अंतरराष्ट्रीय क्रीड़ा छोकरों की एक लंबी वंशावली है। उन्होंने तथ्यों को चुना। इसमें उनका एक लक्ष्य था देश में विदेशी शासन को मजबूत करना। ‘ भारतीय इतिहासकार डॉक्टर तारा चंद्र और डॉक्टर मजूमदार को लोहिया ने अंतरराष्ट्रीय क्रीड़ा-छोकरों की देशी परजीवी संतान बताते हुए कहा कि दोनो ही अंग्रेज काल के झूठ को स्वीकार करते हैं। उनमें मतभेद केवल किसी झूठ को छोड़ने या स्वीकार करने का है। लोहिया ने इतिहासकारों की एक उपधारा का भी जिक्र किया। लिखा, ‘ यह अलीगढ़ से जोड़ी जाती है। वे प्रगतिशील होने का दावा करते हैं। बांझ या छिछले मार्क्सवाद के अनुसार इतिहास में निरंतर प्रगति होती है। इतिहास की यह धारणा उनकी विकृत आत्माओं को भी शांति प्रदान करती है। वे हर मुस्लिम आक्रमण का औचित्य खोजने में लगे रहते हैं। चाहे उसके परिणामस्वरूप मुगल मुसलमानों द्वारा अफगान मुसलमानों की हत्या हुई हो और हिन्दू-मुसलमानों का नजदीक आना रुका हो या पिछड़ गया हो। कौन नहीं जानता कि अफगान हुकूमत देशी हो चुकी थी और हिन्दू-मुसलमान भारतमाता की दो आंखों जैसे बनने लगे थे, जब मुगल आक्रमण ने उन्हें फिर अलग कर दिया। मार्क्सवाद सहित भारत में बाहर से लाये गए हर सिद्धांत का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि वह निष्प्राण कर दिया जाता है। ‘

लोहिया को भारतीय संस्कृति में अगाध आस्था थी। वह कहते हैं, ” भारतमाता हमे शिव का मष्तिष्क दो। कृष्ण का ह्रदय दो और राम का कर्म और वचन दो। हमे असीम मष्तिष्क और उन्मुक्त ह्रदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो। उनका भरोसा था कि सत्यम, शिवम, सुंदरम के प्राचीन आदर्श और आधुनिक विश्व के समाजवाद,स्वातंत्र्य और अहिंसा के तीन सूत्री आदर्श को इस रुप में रखना होगा ताकि वे एक दूसरे की जगह ले सकें। लोहिया की धर्म निरपेक्षता एकांगी नही थी। वह साम्प्रदायिक हिंसा के लिए हिन्दू-मुसलमानों दोनो को जिम्मेदार मानते थे। उनके मुताबिक” समाज की परवरिश गलत की गई। हिन्दू ओर मुसलमानों की जड़ों में अविश्वास का जहर घोला गया। यह काम किसी और ने नही बल्कि दोनो समुदायों के पढ़े लिखे लोगों ने किया। मजहब और सियासत का रिश्ता अभी ठीक तरह से नही समझा गया। हमारी बिरादरी ने भी नही समझा। शायद उन लोगों ने भी नही समझा जो खुदा और ईश्वर दोनो को बहुत अहमियत देते हैं। असल में दोनो का रिश्ता है। खाली हमारी तरफ से जब कह दिया जाता है कि समाज और राज ( सरकार) से मजहब का कोई ताल्लुक नही रहना चाहिए तो यह बात पूरी नही हो जाती। पूरी बात करने के लिए यह समझना होगा कि धर्म तो है लम्बे पैमाने की राजनीति और राजनीति है छोटे पैमाने का धर्म। इनको और ज्यादा सोचें तो इस तरह से चलेगा कि मजहब का काम है कि वह अच्छाई करे और राजनीति का काम है बुराई से लड़े। दोनो एक ही सिक्के के दो पहलु हैँ।”

लोहिया मरते वक्त निजी इस्तेमाल का सामान और कुछ किताबें छोड़ गए थे। पर इससे अलग एक बड़ी पूंजी और अथाह विचार सम्पदा सौंप गए। ऐसी सम्पदा जो अमली जामा पहन पाती तो देश-समाज और समूची मानवता का उपकार हो पाता। वह कहते थे ,”लोग मेरी बात सुनेंगे। शायद मरने के बाद। लेकिन किसी दिन सुनेंगे जरूर। वह आजादी के पहले लड़ते रहे। आजादी बाद भी लड़ते रहे। लगातार देश-समाज को झिंझोड़ते रहे। वोट देकर पांच साल के लिए बेखबर न हो जाने की नसीहत देते रहे। 21 अगस्त 1963 को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए उन्होंने कहा था,’ जिंदा कौमें पाँच साल खामोश नहीं बैठतीं। या तो सरकार को शुद्ध करती हैं या फिर हटाती हैं।’ सत्ता जनता से मुख मोड़े तो सड़क पर उतरने के लिए तैयार रहने की वे सीख भी देते रहे। सचेत करते रहे कि सड़कें खामोश हुईं तो सदन आवारा हो जाएगी। लोहिया ने सवाल पूछने से न डरने की सीख दी थी … और जबाब देने का साहस रखने की नसीहत भी।

सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर काफी समय से लगातार लिख रहे है।